फिर उल्लास हो देर तक

यह झूठ है
कि अभी अभी रोटियाँ तोड़ते हुए हम
रोते रहे हैं।
यह झूठ का दिन है
जिसमें इस झूठे कमरे में
बहुत बेअदबी से हमारी
झूठी मरखनी लाशें पड़ी हैं।
जीने की सब वज़हें ख़त्म हो चुकी हैं
और ख़त्म न भी हुई हों,
तो भी हम उन्हें नहीं माँगते।
हमें चाहिए
कुछ स्त्रियाँ, थोड़ी सी शराब और बरतानिया हुकूमत से आज़ादी।
यह दो हज़ार नौ है।

हमारी दुनिया हमसे नफ़रत करती है,
थूकते हैं हम भी अपनी दुनिया पर
और ऐसे में मुझे तुम्हारी याद
मिर्गी के दौरों की तरह आती है।
उनसे बस थोड़ी कम।

यह आखिरी बार होगा
कि हम प्रेम करेंगे और उपमाएँ देंगे।
इसके बाद बातें हों
नाटे लड़कों और काली लड़कियों के पक्ष में,
फिर दुनिया आए
और दुनियादारी।
फिर उल्लास हो देर तक।



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3 पाठकों का कहना है :

Gaurav Ahuja said...

pehli baar kisi blog par mera pehla comment hain..:)...kafi gahri kavita hain....kataksh achcha kia hain....

सुशील छौक्कर said...

बहुत गहरे उतर गए आप। अच्छा लगा पढ़ना। आपके ब्लोग पर नजर पड़ते ही दोड़ जाते हैं।

Vinay said...

मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ
मेरे तकनीकि ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित हैं

-----नयी प्रविष्टि
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