सात नीम चौदह झूले

- तुम्हारे हिस्से कुछ भी नहीं आया...न पहली रात न आखिरी।
- और ये जो इतने सारे दिन सिर्फ़ मेरे हिस्से आए?
- एक पहाड़ पर एक महल था, उसमें एक...
- मुझे कहानी नहीं सुननी। कहानियाँ ख़त्म होने पर ऐसा लगता है जैसे किसी ने ठग लिया हो मुझे।
- क्या तुम्हें भी लगता है कि आसमान में घूमती हुई चील बहुत उदास होती होगी?
- मेरा सब उदास चीजों से बहुत सारा प्यार करने का मन करता है।
- मुझे ऐसी बेवकूफियाँ पसन्द नहीं...
- कैसी? उदासी जैसी या प्यार जैसी? या चील होने जैसी?
- उदास होकर प्यार करना तो प्यार करके भी उदास रहना है ना?
- नहीं, दोनों अलग अलग हैं।
- फिर तुम साथ साथ क्यों करते हो?
- नहीं, मुझे प्यार नहीं होता, बस उदासी होती है और बहुत सारी फ़िक्र होती है। स्टेशन पर भीख माँगते लोगों की फ़िक्र होती है, एड्स से मर रहे लोगों की भी, दंगों में मर रहे लोगों की, मार रहे लोगों की भी, मुझे डेढ़ हज़ार रुपए में आठ घंटे पढ़ाने वाले प्राइवेट स्कूलों के मास्टरों की फ़िक्र होती है, उनके आत्मसम्मान की, उनके बच्चों की फ़िक्र होती है, मुझे बेचारे अब्दुल कलाम की फ़िक्र होती है, कभी कभी विश्वनाथन आनन्द की भी...मुझे न जाने क्यों लगता है कि वह अकेले में अक्सर रोता होगा, मुझे मनोज बाजपेयी की फ़िक्र होती है, उसकी पत्नी नेहा की भी, नेहा के रूठे हुए पुराने मुस्लिम नाम की भी, मुझे कुदालों, कुल्हाड़ियों, कुम्हारों, कठफोड़वों और किताबों की भी बहुत फ़िक्र होती है, कुम्हारों की सबसे ज़्यादा। मैंने बरसों से चाक नहीं देखा...या शायद कभी देखा ही नहीं मगर मुझे फ़िक्र होती है, इतनी कि साँस नहीं ले पाता। मुझे ‘गुमशुदा की तलाश’ में दिखाए जाने वाले बच्चों की फ़िक्र होती है, सर्कस में हंटरों से पिटते हाथियों की भी...
- फिर तो तुम्हें मेनका गाँधी की भी फ़िक्र होती होगी?
- नहीं, रत्ती भर भी नहीं।
- ऐसा करते हैं कि एक फ़िक्र की रात निश्चित कर लेते हैं। मैं रात भर तारे गिनूंगी और तुम फ़िक्र करना।
- लेकिन उस रात बादल होंगे और तारे नहीं होंगे।
- तो मैं बादल गिन लूंगी, जैसे तुम मेरे बाल गिनते हो।
- नहीं पगली, वैसे तो तारे गिने जाते हैं।
- छोड़ो।
- जब मैं बच्चा था तो एक स्कूल था, जिसमें रुई की किताबें होती थीं और मोम के बेंच। वहाँ सात नीम के पेड़ थे जिन पर चौदह झूले टँगे थे...
- यानी हर पेड़ पर दो दो?
- नहीं, वहाँ किसी को गणित नहीं आती थी।
- तो ये कैसे मालूम पड़ा कि सात पेड़ थे और चौदह झूले?
- यह बात स्कूल के दरवाजे पर लगे बोर्ड पर लिखी थी। ‘आधुनिक सुविधाओं युक्त सहशिक्षा विद्यालय’ के नीचे।
- क्या ऐसे लिखा था कि चौदह झूलों युक्त सात नीम?
- नहीं, अकेला सात बटे चौदह लिखा था किनारे पर।
- इसके तो हज़ारों अर्थ हो सकते हैं।
- क्या क्या?
- कि उसका पता सात बटे चौदह हो या वह स्कूल उन्नीस सौ चौदह की जुलाई में शुरु हुआ हो या वहाँ सात कक्षाएँ हों और हर एक में चौदह बच्चे हों या चौदह जुलाई पेंटर का जन्मदिन हो या उसकी प्रेमिका का या हो सकता है कि वह इकहत्तर सौ चौदह हो, जो पेंटर का पारिश्रमिक हो और स्कूल वालों ने न चुकाया हो और बाद में किसी दिन पेंटर ने रात को गुस्से में बोर्ड पर वह लिख दिया हो। तुम्हें सही याद है कि वह बटे था, एक नहीं?
- मुझे कभी बटे याद आता है और कभी एक! लेकिन यदि उसने गुस्से में लिखा होता तो उसे पूरा ही लिख देना चाहिए था कि रमेश पेंटर के इकहत्तर सौ चौदह रुपए स्कूल वालों पर बकाया हैं।
- और नीचे साइन कर देने चाहिए थे।
- साइन तो थे..
- सिर्फ़ साइन नहीं। वह तो हर पेंटर करता है, अपने काम पर अपना नाम लिखने के लिए।
- हो सकता है कि उसके पास इतना लिखने लायक रंग ही बचा हो।
- लेकिन पेड़ हों या पैसे, गिने किसने होंगे? हैडमास्टर ने या पेंटर ने?
- पैसे तो थे ही नहीं, वे तो बकाया थे। उन्हें कोई कैसे गिन सकता था?
- फिर यह कैसे पता चला होगा कि स्कूल वाले रमेश को इतने रुपए देंगे?
- अब रमेश कौन आ गया बीच में?
- तुम्हीं ने तो बताया कि पेंटर का नाम रमेश था। तुम सब कुछ भूल जाते हो।
- मुझे याद नहीं कि मैंने उसका नाम भी लिया था। पेंटर सुनते ही तुम्हारे दिमाग में कोई रमेश पेंटर आया होगा और तुम्हें फिर यही याद रहा होगा कि मैंने उसका नाम बताया है।
- चलो छोड़ो यह सब। झूलों से आगे की बात बताओ।
- बारहवें झूले की तख्ती पर मैंने अपना नाम लिख दिया था।
- फिर?
- उस स्कूल की छत पर पहला आसमान था। एक मैडम थी जो दुनिया की पहली मैडम थी। मैं उससे बहुत प्यार करता था, वह मुझे रोज़ मारती थी।
- मुझे नहीं सुनना।
वह रूठ गई थी। मैं उसे मनाने के लिए दाल-बाटी-चूरमा लाया जो उसने पिछले महीने मुझसे मँगवाया था। जो लोग खाने की चीजों से मान जाते हैं, उन्हें मनाना आसान है। बाकी लोगों को तो मनाया ही नहीं जा सकता। बाकी लोगों का रूठ जाना उनके मर जाने जैसा होता है।
खाते खाते ही वह बोली- एक और लड़की थी ना?
- कौनसी?
- जो रोते रोते सो जाती थी। जिसका नाम हर दिन बदल जाता था।
- जिसके घर में एक बिल्ली थी जो बिना बताए कहीं चली गई थी?
- हाँ, वही।
- अब उसकी कोई ख़बर नहीं है। मैं उसे ढाई साल पुराने नाम से ढूंढ़ता हूं, लेकिन उसका नाम तो रोज बदल जाता है।
- जो कभी ऐसा हो कि तुम फ़िल्म देखने जाओ और वह अचानक तुम्हें मिल जाए तो?
- या ट्रेन में मेरे सामने वाली बर्थ पर...
- या न्यूज़ चैनल वाले जब भीड़ इकट्ठी करके कुछ पूछते हैं, उनमें कभी दिख जाए...
- हाँ, और तब मैं पीछे का सारा दृश्य याद कर लूंगा। फिर उस हलवाई की दुकान पर जाकर पूछूंगा कि वह लड़की, जो बार बार बालों में हाथ फिराते हुए बोल रही थी, कहाँ मिलेगी?
- हलवाई कौन?
- मैंने मान लिया था कि टीवी में भीड़ के पीछे एक दुकान दिख रही होगी, बीकानेर मिष्ठान्न भंडार।
- न्यूज़ चैनल वाले मिठाई की दुकान पर क्यूं जाएँगे भला?
- शायद वहाँ आग लग गई हो...
- आग लग गई होगी तो तुम दुकान कैसे ढूंढ़ोगे...और हलवाई भी?
- फिर वह नहीं बता पाएगा क्योंकि वह बूढ़ा होगा। उसका बेटा उसे रोज देखता होगा, शायद उसके पीछे उसके घर तक भी जाता हो। वह बता देगा।
- तुम्हें उसके बेटे पर गुस्सा आएगा?
- हाँ, थोड़ा सा, लेकिन मैं कुछ कहूंगा नहीं।
- मैं जानती थी कि नहीं कहोगे।
- तुम कैसे जानती थी?
- उस दिन मन्दिर के सामने वो काली टी शर्ट वाला लड़का मुझे घूर घूर कर देख रहा था और तुम चुपचाप निकल आए थे।
- तुम्हें देखना कोई अपराध थोड़े ही है। तुम कुतुब मीनार थोड़े ही हो।
- उसे देखना अपराध है?
- हाँ, वहाँ पुलिसवाले रहते हैं जो बताते हैं कि क्या देखना है और क्या नहीं।
- वह बार बार बालों में हाथ फेरती थी?
- कौन?
- जो मिठाई की दुकान के बाहर खो गई थी..
- तुम्हें कैसे पता? तुमने देखा है उसे?
- उसे सबने देखा है और सब भूल गए हैं।
- वह चूड़ीदार पहनती थी, वह गिद्धा करती थी, वह सुबह सुबह ब्रश करने से पहले हँसती थी, उसे नीला रंग पसन्द था, काले धब्बों वाली तितलियाँ और हरे सेब। वह धुंधली नींद सोती थी और सफेद सपने देखती थी। उसने मेरे लिए खीर बनाकर रखी थी, जिसे वह मुझे खिला नहीं पाई।
- और फिर खीर में कीड़े पड़ गए होंगे? सारा दूध बेकार गया। आधा लीटर तो होगा ही?
- उनके घर में भैंस थी।
- फिर उसे धुंधला सोने, सपने देखने और गिद्धा पाने का टाइम कहाँ से मिलता था? जिनके घर में पशु होते हैं, वहाँ गोबर उठाना पड़ता है, दूध दुहना पड़ता है, सिर पर चारा उठाकर लाना पड़ता है। तुम ही सोचो, गोबर उठाते उठाते प्यार करना किसे याद रहता है? और याद भी रहे तो दोनों काम साथ साथ करना असम्भव सा नहीं लगता?
- वह कहती थी कि उसे याद रहता था।
- जरूर झूठ बोलती होगी। उसका जन्मदिन अक्टूबर में तो नहीं आता था?
- आता था नहीं आता है...
- अक्टूबर में जन्मी लड़कियाँ झूठी होती हैं।
- मुझे उसका जन्मदिन पक्का याद नहीं।
- तुम उसे बचाना चाह रहे हो, तुम भी झूठे हो।
- हाँ।
- तभी तुम्हारे हिस्से कुछ भी नहीं आया...न पहली रात न आखिरी...
- और ये जो इतने सारे दिन आए?



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6 पाठकों का कहना है :

वेद रत्न शुक्ल said...

उज्ज्वल भविष्य...

Anonymous said...

निवेदिता के बाद सच्चे दिल से दूसरी बार तारीफ करनी पड़ गई... वरना झूट बोलना तो मेरी आदत हो गया था.....
यार लगता है मैं भी समझने लगा हूँ थोड़ा-थोड़ा के हिन्दी में कितना दम है... इसपर शर्म की जगह अब से गर्व किया करूंगा...

Thanks,
Deenu

Manuj Mehta said...

रस है और शब्दों को गूंथना तो तुम भली भाँती जानते हो हो. मुझे ये कुछ एक थियेटर में चल रहे एक प्ले जैसा लगा.
खुश रहो.

विवेक said...

बेहतरीन...

प्रशांत मलिक said...

gaurav bhai kahan rahne lage ho aaj kal..
kab se kuch nahi likha
21 din ho gaye aaj

bhawna....anu said...

नहीं, मुझे प्यार नहीं होता, बस उदासी होती है और बहुत सारी फ़िक्र होती है।
achha laga...aur ye paragraph to bas kamaal kiha hai...keep it up.