समय निश्चित रूप से
बौराए हुए आत्मघाती शोर का है
लेकिन सन्नाटा भी लगातार चुन चुन कर
निगल रहा है अपने शिकार।
बीच के लोग रहेंगे
देर तक ज़िन्दा।
रसोई में सजे भगोने में
घूम रही हैं दो मकड़ियाँ,
या शायद एक।
निश्चिंत होकर सो जाना
गाँव से आए ताऊजी के
देर रात दरवाजा पीटने पर
दुबारा आटा गूंथती माँ के मुस्कुराने जितना
अवसाद भरा झूठ है।
न खुलने के सामाजिक अपराध पर
देर रात, सुबह तड़के या भरी दोपहर में
पिटते रहना
दुनिया भर के बन्द दरवाजों की नियति है।
इतना आहिस्ता रोती हो तुम
कि मुझे आती है हँसी,
रोना भी।
इतने गहरे तक पैठा हुआ है
कम्बख़्त मेरी पैदाइश का शहर,
उसके लोग,
उसकी लड़कियाँ
कि उनसे नफ़रत करना चाहूं
तो मर जाने का मन करता है,
प्यार करता रहूं
तो पागल हो जाऊँ।
माँ की एक सहेली थी कक्षा आठ में
जिसका आखिरी इम्तिहान से ठीक पहले ब्याह हो गया था,
जिससे मिलने माँ गई थी
भादो की किसी दूज को शायद
मामा के साथ ताँगे में बैठकर
और लौटते हुए रोती रही थी।
मैंने नहीं देखी माँ की कोई सहेली कभी,
मुझे क्यूं याद आती है वो
सीधी आँख के नीचे के तिल वाले
अपने पूरे चेहरे समेत?
क्यों होता है
मीना कुमारी की तरह
तकिए में चेहरा भींच कर रोते रहने का मन?
कंधे पर रेडियो रखे
एक सफेद कुरते वाला बूढ़ा
रात के अँधेरे में दिख जाता है
हड़बड़ाया, तुड़तुड़ाया, नाराज़, परेशान सा
जैसे सरकारी स्कूल का कोई मास्टर
लड़ आया हो अपने हैडमास्टर से
नाक पोंछते बच्चों के सामने चिल्ला चिल्ला कर,
खिंच गई हों उसके पेट की नसें,
कराहता रहा हो शाम भर
या तबादले के लिए मिलने गया हो एम एल ए से
और उसे मिली हों माँ बहन की गाली,
शायद खड़ा सिर झुकाए हाँ हूँ करता रहा हो,
शायद मुड़ने से पहले फिर से नमस्ते भी की हो,
शायद रोया भी हो घर आकर
और उसकी पत्नी ने अपने बच्चों को न बताया हो
या बस खाट पर पड़ा
सुनता रहा हो रात तक
प्रादेशिक समाचार,
बच्चे खेलते रहे हों क्रिकेट।
नकली घरघराती आवाज़ में
बहुत हँसाया करते थे मेरे पिता
जब कहते थे
”ऐसे बोलो, जैसे मैं रेडियो की तरह बोलता हूँ।“
आखिर पूछ लो ना मुझसे।
कुछ बात है अनकही
जो इतनी भारी है कि
रात भर नहीं बदलती करवट,
चूं भी नहीं करता दुख
कि नाखूनों में फँसा कर उखाड़ लिया जाए।
मेरे नाम से कोई तो रखता होगा व्रत,
नहीं तो दिल्ली में इतने दिन
कैसे ज़िन्दा रह सकता है कोई ख़ामोश नास्तिक आदमी?
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10 पाठकों का कहना है :
गौरव जी शब्दों में बङी कशमकश है।
गौरव यह सिर्फ आपकी पैदाइश का ही शहर नहीं, बल्कि हम सभी का है जो मुंह बाए महानगर की तरफ बेतहाशा भागे जा रहे हैं।
गहरी अनुभूतियों को पकड़ते आपके शब्द दिल तक उतरते चले गए।
दूसरी बार आटा गूंथती माँओं के चेहरे पर अब मुस्कराहट कहाँ...
आपको दुसरी बार पढ रहा हूँ एक बार शायद तहलका में पढा था। आपके शब्दों के एक कशिश सी और नया पन है। अच्छा लगा आपकी रचना को पढना।
मेरे नाम से कोई तो रखता होगा व्रत,
नहीं तो दिल्ली में इतने दिन
कैसे ज़िन्दा रह सकता है कोई ख़ामोश नास्तिक आदमी?
ये दिल के पास आकर कुछ कह गया।
behad shandaar.
alok singh "sahil"
bahul hi aachh .... mere yahaa bhi aaeye
वी आल लव यू...
प्रीति जी, सुमित जी, सुशील जी, आलोक जी, विनय जी और दीनू काका, आप सब का इस प्यार के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
very nice gaurav...man kar rha tha kuch aisa hi padne ka......my papa also liked ur work v much.....(though he s not that much fond of poetry)...he is giving u blessings right now...wish u all d best .
god bless u.
mast yaar
really
chahe jiti time padho achchi ladtihai
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