बावरी सी रात थी, लेकिन इतनी भी बावरी नहीं कि अपने दूध पीते बच्चों को सड़क पर गिराकर अपने कपड़े फाड़कर चिल्लाती हुई भागने लगे। बस इतनी बावरी थी कि अपने आँचल का छोर पकड़कर लटके दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरती हुई कभी रोने लगती थी और कभी हँसने लगती थी। रात को जाने क्या दुख था, क्या खुशी थी!
हमने तय किया था कि रोएंगे नहीं। हम दोनों अपनी अपनी माँ से इतने नाराज़ थे कि आत्महत्या कर सकते थे। उसने अपनी माँ को किसी से प्यार करते देखा था और मैंने अपनी माँ को किसी से प्यार करते नहीं देखा था। माँ से न बोलने की कसम खाने के बाद ज़िन्दा रहना इतना मुश्किल था कि वह मुझ पर दया कर मेरी साँस लेती थी और मैं उस पर प्यार कर उसकी साँस लेता था। जब यह भी कठिन हो गया तो कुछ समय बाद हम दोनों रात को माँ कहने लगे थे। पहले वाली माँओं के गर्भ से जन्म लेते हुए हमने अपने आप को नहीं देखा था, लेकिन हम दोनों ने अपनी आँखों से देखा था, जब रात ने हमें जन्म दिया।
जब हमारी बावरी माँ हँसती रोती थी और हम उसका पल्लू पकड़कर ठगे से खड़े रहते थे, तब हमने निश्चय किया था कि माँ के सामने रोएंगे नहीं। उसने निश्चय किया था कि वह बोलेगी भी नहीं। वह अपनी अनामिका मेरी मध्यमा से छुआ देती थी तो मैं समझ जाता था कि वह उदास है। वह खिड़कियों के परदे बदलने लगती थी या किसी रात जल्दी सोने चली जाती थी या किसी दिन अख़बार पढ़ने लगती थी तो मैं समझ जाता था कि वह उदास है। लेकिन तब भी हमने कभी वह निश्चय नहीं तोड़ा। हम रात में कभी नहीं रोए। मैं उसके दाएँ पैर के अंगूठे का नाखून चबाते हुए सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहता और वह अपनी आँखों पर सिर दर्द के बहाने वाली चादर लपेटकर सोने का अभिनय करती रहती। माँ अपने चाँद को लेकर जब चली जाती थी, उसके बाद मैं बाथरूम में जाकर देर तक रोया करता था। फव्वारे के नीचे खड़े होकर रोने पर कोई रोने की वज़ह भी नहीं पूछता था। और वह शायद अपने भीतर जाकर रोती होगी। मैंने उसे उसके बाद रोते हुए नहीं देखा।
उसका बचपन पहाड़ों पर बीता था। जब वह चार साल की थी तो एक देवदार पर उगी हुई मासूमियत तोड़कर चुरा लाई थी। मासूमियत उदासी के साथ मिलकर बहुत ख़ूबसूरत हो जाती थी। मैं जब चार साल का था तो पेड़ों के नीचे गिरी हुई निंबौरियाँ और बेर ढूंढ़ ढूंढ़कर खाया करता था। माँ देख लेती थी तो बहुत मारती थी। किताबों में लिखा होता था कि बच्चों को मारने के बाद माँएं खुद भी बहुत रोती हैं। पिटने के बाद की बचपन की रातों में मैं यही सोचकर अपने आप को सांत्वना दिया करता था कि मेरी माँ भी किसी कोने में जाकर रोती होगी। उसने अपनी माँ के बारे में कभी कुछ नहीं बताया, सिवा इसके कि उसने अपनी माँ को किसी से प्यार करते हुए देखा था।
फिर एक शाम, जब सड़क पर बहुत ट्रैफिक था और लोग एक दूसरे की छाती पर पैर धरकर आगे बढ़ जाना चाहते थे, जब टी वी पर सुपरहिट मुकाबला नहीं आ रहा था और दस साल पुराने प्रोग्राम को याद कर एम टी वी देख रहा मेरा पड़ोसी उदास था, जब नीचे की मंजिल पर अपने दफ़्तरी पति से उकताई सरदारनी पड़ोस के बिल्लू को अपने घर का गीज़र ठीक करवाने ले गई थी, जब सामने परचून की दुकान के बाहर पड़े बेंच पर पैर मोड़कर लेटा एक नौजवान लड़का अपनी बेवफ़ा प्रेमिका को मार डालना चाह रहा था, जब हमारे घर की बालकनी वाले रोशनदान में एक सफेद कबूतर आकर बैठ गया था और फिर उड़ गया था, तब वह चिल्ला चिल्लाकर रोने लगी थी और रात के गहराने तक रोती रही थी। फिर वह खाली हाथ, बिना ताला लगाए घर से निकल गई थी और जब मैं काम से लौटा था तो मुझे उसका कोई संदेश नहीं मिला था। फिर मैं रात भर चुप उसके खाली पलंग के सिरहाने बैठा रहा था। वह फिर कभी नहीं लौटी और हम दोनों को अपना निश्चय तोड़ना पड़ा था। डेढ़-दो बजे उसका फ़ोन आया था और उसने नहीं कहा था, लेकिन मैं समझ गया था कि अब हम दोनों अनाथों को अपनी अपनी साँसें अपने आप लेनी पड़ेंगी। कुछ था, जो बेवज़ह पिघलकर ख़त्म हो गया था...आधा अधूरा सा।