वे नारंगी सपनों और लाल सुर्ख़ नारंगियों के दिन थे। वे जवान लड़कों और मदहोश कर देने वाली लड़कियों के दिन थे। वे लम्बी गाड़ियों, ऊँची इमारतों और गाँधी की तस्वीर वाले कड़कड़ाते नोटों के दिन थे। वे अख़बारी वर्ग-पहेलियों और शॉपिंग करती सहेलियों के दिन थे। वे ‘राम जाता है’, ‘सीता गाती है’, ‘मोहन नहीं जाता’, ‘मोहन नहीं जाता’ के जुनूनी पढ़ाकू दिन थे। वे हफ़्ते भर सप्ताहांतों के दिन थे। वे उत्सवों के दिन थे, रतजगों के दिन थे, जश्न के दिन थे। वे कसरती बदन वाले जवान लड़कों और उंगलियों में धुएँ के छल्ले पहने हुई नशीली नर्म लड़कियों के दिन थे।
वे डाबर हनी के दिन थे लेकिन जाने कैसे कस्बाई बरामदों में शहद के छत्ते अनवरत बढ़ते ही जाते थे और गाँवों में कंटीले कीकर के पत्ते भी...
रातें उन दिनों की चालाक प्रेमिकाएं थीं। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे, लेकिन न जाने क्यों हमने अपने फेफड़ों में दहकते हुए ज्वालामुखी भर लिए थे कि हमारी साँसें पिघले सीसे की तरह गर्म थी, कि हमारी आँखों से लावा बरसता था, कि हमारे हाव-भाव दोस्ताना होते हुए भी भयभीत कर देने की सीमा तक आक्रामक थे, कि हम आवाज में रस घोलकर रूमानी होना चाहते थे तो भी हम शर्म से सिर नीचा कर देने वाली गालियाँ बकते थे।
मैं उसके मोबाइल पर फ़ोन करता हूं। पहली बार में फ़ोन नहीं उठाया जाता। मुझे मजबूर किया जाता है कि मैं देर तक उसकी हैलो ट्यून का ‘ये दूरियाँ अब हैं कहाँ? ये फ़ासले ना दरमियाँ’ सुनता रहूं। दूसरी बार में उसका पति फ़ोन उठाता है और मैं काट देता हूं। मैं दिन के साथ बीतता हुआ दोपहर होता हूं और फिर फ़ोन करता हूं। इस बार गाना बदल गया है। उसे बदलने के लिए एक एस एम एस करना पड़ा है, जिसके पन्द्रह रुपए लगे हैं। उसका पति महीने के पन्द्रह हज़ार कमाता है और वह उसके ऑफिस जाने से पहले गिनकर पन्द्रह बार मुस्कुराती है। उसकी अँगूठी की उंगली से खेलता हुआ पति फिर फ़ोन उठाता है और मैं काट देता हूं।
.... मैं उसके नोकिया 6600 - एयरटेल मोबाइल पर अपने नोकिया 1100 – बी एस एन एल से पन्द्रह बार फ़ोन करता हूं और उसका पति ही फ़ोन उठाता है....
मैं दीदी को फ़ोन करता हूं तो जीजाजी फ़ोन उठाते हैं। वे बहुत खुश हैं, आज उनका प्रमोशन हुआ है, वे मुझे छुट्टी लेकर आने को कहते हैं, फिर याद आता है तो मेरा हाल-चाल पूछते हैं, गर्लफ्रैंड का हाल-चाल पूछते हैं – मैं चुप रहता हूं, पूछते हैं कि वहाँ भी बारिश है क्या, वीकेंड पर कौनसी फ़िल्म देखी.....
और दीदी रसोई में मटर पनीर बना रही हैं।
माँ, मैं उदास हूं।
माँ, ये तुम्हारे रेशमी बालों के सफेद सन होने के दिन हैं। मैं तुम्हारे मोबाइल पर फ़ोन करता हूं और इस संभावना से काँप जाता हूं कि फ़ोन पापा उठाएँगे। दो घंटियाँ बजती हैं और मैं फ़ोन काट देता हूं। मैं इस उम्मीद की हत्या नहीं करना चाहता कि तुम्हें फ़ोन करूंगा तो तुम ही उठाओगी। तुम घर में आराम से पैर पसारकर ‘कसम से’ देख रही हो।
- छोड़ो भी अब। कहने लगते हो तो जाने क्या क्या कहते रहते हो...
- आज तुमने क्यों नहीं उठाया फ़ोन?
- तुम भी जानते हो कि अब सब पहले जैसा नहीं रह गया है।
- पहले भी कुछ अच्छा कहाँ था कि उसके न रहने पर कुछ न रहना लगे।
- रात को ठीक से सोए नहीं शायद। आँखें लाल हैं तुम्हारी।
- नहाते हुए साबुन लगाकर आँखें बन्द नहीं कर पाया था।
वह छलकते हुए दूध की तरह हँस देती है।
- इस बार क्या चाहिए जन्मदिन पर?
- कि तुम्हीं फ़ोन उठाया करो।
- उंहूं.....
वह मुँह बनाती है और बनाकर फेर लेती है। मेरा मन करता है कि वह अभी वहाँ से गायब होकर आकाश में कहीं खो जाए या खो न सके तो तारा ही बन जाए।
वह मेरे लिए चाय बनाने जाती है और मैं सोचता हूँ कि उबलती चाय उसके पैरों की गुलाबी उंगलियों पर गिर जाए या उसके सिर पर ऊपर से हमाम-दस्ता गिरे और उसे मरने से पहले बहुत दर्द हो। मैं सोचता हूं कि रसोई की मेज के पैरों पर लगी दीमक उसके भीतर घर कर लें और उसे खाती जाएँ।
मैं उससे बहुत प्यार करता हूं, अपने जीवन-दर्शन-पैशन से भी ज्यादा। लेकिन जाने कैसे कलमुँहे अजीब दिन आ गए हैं कि मैं उसे चूमता हूं तो काट लेता हूं। वह मुझे चूमती है तो अगले ही पल पलटकर सुबक सुबक रोने लगती है। मैं उसे सोचता हूँ तो दुर्घटनाएं सोचता हूँ। वह मुझे सोचती है तो घर-मोहल्ला-दुनिया-परम्पराएं सब कुछ सोचती है, सिवाए मेरे।
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8 पाठकों का कहना है :
traggic
ये आसमान जमीन पर न उतर आयें कहीं
डर लगता है तेरी रफ़्तार देखकर
जीओ गौरव....
मेरी नज़र ना लग जाए....
very gud, aajkal ki dunia ke baare main bahut accha likha hai. ek kuware ladke ka shadishuda ladki se prem bhi accha aur satya likha hai...
bahut sundar chitran kiya hai shabdon mein,badhai
बढिया!!
बंधु यहाँ तो आगाज़ से भी पहले तुम्हारे पास अंत था, वैसा नहीं जैसा तुमने एक बार बताया था मुझे अंतविहीन होने का। विषय को भाष्य बनाना तुम्हे आता है गौरव। अच्छा नहीं लगा पढ़कर। न न, तुम्हारे लिखे से तो खुशी हो रही है मगर उसका दु:ख मेरे अंदर नमक की तरह घुल रहा है, इसलिये दुखी हूँ। :)
शुभम।
behad achchhi lagi dil ko chhuti hui laghu katha. ab to aap mahir ho gaye hai pyaar ke dard ko dikhane me
क्या लिखते हो! शानदार!
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