जीते रहना इतना आसान था
कि जब हमारी माँओं ने
हमारी डायरियाँ कबाड़ में डालते हुए
छातीपीट पश्चाताप से कहा
कि पैदा होते ही क्यों नहीं घोट दिया तुम्हारा गला
तो हम अपनी बाग बाग गलियों के किनारे पर
दिनभर बेशर्मी से खड़े रहने वाले
फक्कड़ दोस्तों को बक आए माँ-बहन की गालियाँ
और वे मुस्कुराकर डाले रहे गलबहियाँ,
आशीर्वाद देते रहे
कि जीते रहो।
जीते रहना इतना आसान था
कि हर इतवार को देखी हमने
बेदिमागी फ़ीलगुड फ़िल्में,
उससे पहले देखी
उनके मुँह पर हाथ रखकर जबरदस्ती कुचल देने की सीमा तक उत्तेजित करने वाली
ढेर सारी लड़कियाँ,
(उनका शुक्रिया। वे जिएँ सौ बरस सुरक्षित, खुश, स्वच्छंद।)
उससे पहले मारी सड़क के एक निर्दोष पत्थर को ठोकर,
उससे पहले चिढ़ गए पूरा चाँद देखकर,
बीच में कहीं रुक रुककर रोते रहे
बेवज़ह।
हम सब रोते हैं।
जीते हैं हमारे माँ पिता
लेकिन क्यों अनाथों जैसी हैं हमारी दहाड़ें?
हमें मरना है
लेकिन फिर से एक जन्म की संभावना सोचकर
ठहर जाते हैं हमारे कदम।
हम सब रोते हैं जोर जोर से
कि कहीं
तुम डर न जाओ सन्नाटे में।
शहर में अँधेरा है,
इतना कि चावल बीनते हुए
रोशनी के लिए
रह रहकर जला देती हो तुम मेरी आँखें।
अपनी नाप के जूतों से सिर ढककर
सो गए हैं सब
और जिन्हें बनानी हैं
या खरीदनी हैं टोपियाँ,
उन्हें पागल होना पड़ा है।
जिनको जाना था शिकार पर,
वे पढ़ रहे हैं शिकार की किताबें।
आईने में ऐब है
कि आत्मविश्वास खोकर शिकारी बनाते हैं
दफ्तरों में बहीखाते।
बीच बरसात में कोई गाता है राग मल्हार,
बच्चे बजाते हैं ताली,
बुढ़ियाएँ नाक भौं सिकोड़ती हैं,
बहुएँ चढ़ा देती हैं दाल की पतीली तुरत फुरत,
भीगती हैं मनियारी वाले की बैंगनी चूड़ियाँ,
फिसल जाता है गली के मोड़ पर एक स्कूटर,
देखने के लिए सब बाहर
तुम अकेली घर के अन्दर,
उठाती हो फ़ोन
और रख देती हो,
फिर आसमान को देखती हो,
फिर काटने लगती हो छौंक के लिए प्याज,
सलाद के लिए खीरे
और जीते रहना इतना आसान है कि
उस न की जा सकने वाली फ़ोन कॉल को भुलाकर
प्रायश्चित में रात का खाना खाए बिना
और एक भी क्षण सोए बिना
सुबह भीगे हुए बाल तौलिए में लपेटकर
खिले हुए गुलाब की सी ताज़गी से
बनाई जा सकती है
दो लोगों की चाय।
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और जीते रहना इतना आसान है कि |
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तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे |
- तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे।
- अश्लील भी तो सुन्दर हो सकता है।
- हाँ, लेकिन स्वीकार्य नहीं।
- मैं कहाँ स्वीकार्य बनाना चाहता हूं?
- तो क्या बनाना चाहते हो तुम?
- नदी के बीचों बीच ज़मीन...
- यानी?
- यानी पसीने से सनी आस्तीन और उसमें बैठे साँप के खाने भर लायक मोतीचूर...
- तो नदी फिर नदी नहीं रह जाएगी, द्वीप बन जाएगी ना?
- पेट भर जाएगा तो साँप भी कहाँ साँप रह जाएगा?
- और आस्तीन?
- उसमें मेहनत है, इसलिए मैली है।
- द्वीप पर तो जहाज ठहरा करेंगे, कप्तान उतरकर अमरूद तोड़ेगा, लोग फुटबॉल खेला करेंगे और नदी रोया करेगी।
- नदी में नाव चलती है, जहाज नहीं।
- नदी में द्वीप होते हैं?
- हाँ।
- नदी को जो कह दो, उसे होना पड़ता है......द्वीप भी।
- नदी बाढ़ ले आए तो सब कुछ डुबो भी सकती है।
- नदी की आँखें बार-बार सूख जाती हैं।
- मैं तुमसे प्यार करता हूं।
- झूठ...
- सच, तुम्हारी कसम।
- सब सफेद झूठ।
- आस्तीन रोती है।
- और साँप?
- उसे रोना नहीं आता।
- तुम्हें आता है?
- टिटहरी बोल रही है।
- क्या? मुझे तो नहीं सुनता, जबकि मेरे इतना पास है कि बता नहीं सकती।
- तुमने कानों में चूड़ी भर ली है...और बिन्दी भी।
- तुम इतने बेशर्म हो गए हो कि भोले लगने लगे हो।
- मुझे तुम्हारा नाम याद है और फिर भी तुम्हें पुकारता हूं तो कुछ और कहता हूं।
- क्या?
- टिटहरी।
- तो कहते रहो। मैं बुरा नहीं मानूंगी।
- सब बुरा मानते हैं।
- सब बुरे हैं।
- तुम्हारी पलकें मुँदने लगी हैं।
- अख़बार में छपा है क्या?
- अख़बार में तो झूठ छपता है।
- तुम्हारी आस्तीन कहाँ गई?
- अपने कमरे में जाकर सो गई।
- और साँप?
- अब मैं नया अख़बार छापा करूंगा।
- तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे।
- अश्लील भी तो सुन्दर हो सकता है।
- हाँ, लेकिन स्वीकार्य नहीं......
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रातें उन दिनों की चालाक प्रेमिकाएं थीं। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे... |
वे नारंगी सपनों और लाल सुर्ख़ नारंगियों के दिन थे। वे जवान लड़कों और मदहोश कर देने वाली लड़कियों के दिन थे। वे लम्बी गाड़ियों, ऊँची इमारतों और गाँधी की तस्वीर वाले कड़कड़ाते नोटों के दिन थे। वे अख़बारी वर्ग-पहेलियों और शॉपिंग करती सहेलियों के दिन थे। वे ‘राम जाता है’, ‘सीता गाती है’, ‘मोहन नहीं जाता’, ‘मोहन नहीं जाता’ के जुनूनी पढ़ाकू दिन थे। वे हफ़्ते भर सप्ताहांतों के दिन थे। वे उत्सवों के दिन थे, रतजगों के दिन थे, जश्न के दिन थे। वे कसरती बदन वाले जवान लड़कों और उंगलियों में धुएँ के छल्ले पहने हुई नशीली नर्म लड़कियों के दिन थे।
वे डाबर हनी के दिन थे लेकिन जाने कैसे कस्बाई बरामदों में शहद के छत्ते अनवरत बढ़ते ही जाते थे और गाँवों में कंटीले कीकर के पत्ते भी...
रातें उन दिनों की चालाक प्रेमिकाएं थीं। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे, लेकिन न जाने क्यों हमने अपने फेफड़ों में दहकते हुए ज्वालामुखी भर लिए थे कि हमारी साँसें पिघले सीसे की तरह गर्म थी, कि हमारी आँखों से लावा बरसता था, कि हमारे हाव-भाव दोस्ताना होते हुए भी भयभीत कर देने की सीमा तक आक्रामक थे, कि हम आवाज में रस घोलकर रूमानी होना चाहते थे तो भी हम शर्म से सिर नीचा कर देने वाली गालियाँ बकते थे।
मैं उसके मोबाइल पर फ़ोन करता हूं। पहली बार में फ़ोन नहीं उठाया जाता। मुझे मजबूर किया जाता है कि मैं देर तक उसकी हैलो ट्यून का ‘ये दूरियाँ अब हैं कहाँ? ये फ़ासले ना दरमियाँ’ सुनता रहूं। दूसरी बार में उसका पति फ़ोन उठाता है और मैं काट देता हूं। मैं दिन के साथ बीतता हुआ दोपहर होता हूं और फिर फ़ोन करता हूं। इस बार गाना बदल गया है। उसे बदलने के लिए एक एस एम एस करना पड़ा है, जिसके पन्द्रह रुपए लगे हैं। उसका पति महीने के पन्द्रह हज़ार कमाता है और वह उसके ऑफिस जाने से पहले गिनकर पन्द्रह बार मुस्कुराती है। उसकी अँगूठी की उंगली से खेलता हुआ पति फिर फ़ोन उठाता है और मैं काट देता हूं।
.... मैं उसके नोकिया 6600 - एयरटेल मोबाइल पर अपने नोकिया 1100 – बी एस एन एल से पन्द्रह बार फ़ोन करता हूं और उसका पति ही फ़ोन उठाता है....
मैं दीदी को फ़ोन करता हूं तो जीजाजी फ़ोन उठाते हैं। वे बहुत खुश हैं, आज उनका प्रमोशन हुआ है, वे मुझे छुट्टी लेकर आने को कहते हैं, फिर याद आता है तो मेरा हाल-चाल पूछते हैं, गर्लफ्रैंड का हाल-चाल पूछते हैं – मैं चुप रहता हूं, पूछते हैं कि वहाँ भी बारिश है क्या, वीकेंड पर कौनसी फ़िल्म देखी.....
और दीदी रसोई में मटर पनीर बना रही हैं।
माँ, मैं उदास हूं।
माँ, ये तुम्हारे रेशमी बालों के सफेद सन होने के दिन हैं। मैं तुम्हारे मोबाइल पर फ़ोन करता हूं और इस संभावना से काँप जाता हूं कि फ़ोन पापा उठाएँगे। दो घंटियाँ बजती हैं और मैं फ़ोन काट देता हूं। मैं इस उम्मीद की हत्या नहीं करना चाहता कि तुम्हें फ़ोन करूंगा तो तुम ही उठाओगी। तुम घर में आराम से पैर पसारकर ‘कसम से’ देख रही हो।
- छोड़ो भी अब। कहने लगते हो तो जाने क्या क्या कहते रहते हो...
- आज तुमने क्यों नहीं उठाया फ़ोन?
- तुम भी जानते हो कि अब सब पहले जैसा नहीं रह गया है।
- पहले भी कुछ अच्छा कहाँ था कि उसके न रहने पर कुछ न रहना लगे।
- रात को ठीक से सोए नहीं शायद। आँखें लाल हैं तुम्हारी।
- नहाते हुए साबुन लगाकर आँखें बन्द नहीं कर पाया था।
वह छलकते हुए दूध की तरह हँस देती है।
- इस बार क्या चाहिए जन्मदिन पर?
- कि तुम्हीं फ़ोन उठाया करो।
- उंहूं.....
वह मुँह बनाती है और बनाकर फेर लेती है। मेरा मन करता है कि वह अभी वहाँ से गायब होकर आकाश में कहीं खो जाए या खो न सके तो तारा ही बन जाए।
वह मेरे लिए चाय बनाने जाती है और मैं सोचता हूँ कि उबलती चाय उसके पैरों की गुलाबी उंगलियों पर गिर जाए या उसके सिर पर ऊपर से हमाम-दस्ता गिरे और उसे मरने से पहले बहुत दर्द हो। मैं सोचता हूं कि रसोई की मेज के पैरों पर लगी दीमक उसके भीतर घर कर लें और उसे खाती जाएँ।
मैं उससे बहुत प्यार करता हूं, अपने जीवन-दर्शन-पैशन से भी ज्यादा। लेकिन जाने कैसे कलमुँहे अजीब दिन आ गए हैं कि मैं उसे चूमता हूं तो काट लेता हूं। वह मुझे चूमती है तो अगले ही पल पलटकर सुबक सुबक रोने लगती है। मैं उसे सोचता हूँ तो दुर्घटनाएं सोचता हूँ। वह मुझे सोचती है तो घर-मोहल्ला-दुनिया-परम्पराएं सब कुछ सोचती है, सिवाए मेरे।
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तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं और नॉस्टेल्जिया |
मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूं और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूं। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।
फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।
- सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं?
मैं मुस्कुरा देता हूं। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूं और बनाने लगता हूं। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी।
- तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?
- मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है।
- कहानी कब सुनाओगे?
- तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?
- चाय में लिखा है।
- अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ?
- नहीं, दूसरी की।
- मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ?
- नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं?
- तुम सवाल बहुत पूछती हो।
वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।
मैं पूछता हूं, “सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?”
- मुझे नहीं पता...
मैं जानता हूं कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूं। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौनसी?”
मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूं। मेरे गाल लाल हो गए हैं।
उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।
- कंगूरे क्या होते हैं?
अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।
मैं पूछता हूं - तुम्हें तैरना आता है?
वह कहती है कि उसे डूबना आता है।
और मैं आखिर कह ही देता हूं कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूं। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूं। मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है। उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूंढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने ‘ड्रैकुला’ देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी...शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा। लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का ‘एक से बढ़कर एक’ याद आता है, सुनील शेट्टी का ‘क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो’ याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो।
वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं।
कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।
मैं कहता हूं कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है?
मैं नहीं बताता।