जैसे चाँद को देखा करते थे

- क्या खाओगे तुम?
और मेरे कुछ कहे बिना ही उसने ऑर्डर देने के लिए फ़ोन उठा लिया।
- दो जूस और दो बटर टोस्ट।
गर्मी की दुपहरी में वह कम से कम बटर टोस्ट खाने का तो टाइम नहीं था, चाहे ए सी चल रहा हो और बटर टोस्ट मुझे कितना भी पसन्द हो। माँ वहाँ होती तो आँखें जरूर तरेरती।
माँ, उसके साथ होता था तो मुझे तुम सबसे ज्यादा याद आती थी।
- मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए...बस कभी कभी तुम्हारी गोद में लेटकर रोने का मन होता है...
कुछ नहीं चाहने के बाद वाली बात मैं शायद माँ से भी एकाध बार कह चुका हूं। पक्का तो याद नहीं कि कहा है या नहीं, लेकिन कहने का मन बहुत बार किया है।
वह डर सा गई।
- अभी मत रोना...
और उसने अपने पैर समेट लिए जो मेरे पैरों के पास ही थे।
- नहीं, मुझे पता है कि लड़कों को किसी के सामने नहीं रोना चाहिए।
- और जो मेरे सामने रोया करते थे...
- गोद में कहाँ लेटता था?
वह चुप हो गई। दीवार पर एक चित्र टँगा था, जिसमें आग थी, लड़की थी, बिल्ली थी, मिट्टी थी और पानी नहीं था।
- तुम्हारा सौन्दर्य-बोध अच्छा हो गया है...
मैं चित्र में डूब गया और जब डूबता रहा तो मर जाने का मन किया, लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़कर बचा लिया। बटर टोस्ट और जूस आ गया था।
हममें बहुत छीना-झपटी हुई ब्रेड खाने के लिए.....टुकड़े टुकड़े करके हम आधे घंटे तक चार स्लाइस खाते रहे।
- स्कूल में हिन्दी की क्लास में जब चतुर्वेदी सर तुम्हें खड़े होकर पाठ पढ़ने को बोलते थे तो मुझे बहुत अच्छा लगता था।
- क्यों?
मैं मुस्कुरा दिया।
- तुम्हारा बोलना मुझे अच्छा लगता था...तुम नदी की तरह बहते हुए पढ़ते थे। मैं तुम्हारी नकल करने की भी कोशिश किया करती थी। करके दिखाऊँ?
हिन्दी का कोई अख़बार वहाँ नहीं था। उसने कहीं से टाइम्स ऑफ इंडिया ढूंढ़ निकाला और जोर जोर से एक आर्टिकल मेरी तरह पढ़ने की कोशिश करने लगी। दो चार लाइन पढ़कर वह समझ गई कि वह मेरी तरह पढ़ना भूल गई है। उसने मुस्कुराकर अख़बार मुझे थमा दिया। मैं पढ़ने लगा....
मैं उसके हेयर क्लिप से खेल रहा था, जिसके दो तीन दाँत मैं तोड़ चुका था और जब भी खट से कोई दाँत टूटता था तो वह मुझे डाँट देती थी।
वह सामने बैठी थी। क्लिप उसके बालों में नहीं था।
- कभी कभी मन करता है कि शादी कर लूं...
वह बोली और मुझे हँसी आ गई। वह भी हँसने लगी।
- क्यों हँस रहे हो?
वह पूछती रही, मगर मैंने नहीं बताया।
- तुम्हारा भी मन करता है कभी कभी?
- हाँ...कभी कभी करता है...
अब हम बराबरी पर थे।
- जानती हो...मैंने अमेरिका के एक रेडियो चैनल पर कविता पढ़ी...
- तुम इतने फ़ेमस हो गए हो?
उसने औपचारिकता के लिए पूछा और फिर जवाब भी नहीं सुनना चाहा, जैसे मैं झूठ बोल रहा हूं या इसमें कुछ बड़ी बात ना हो। मुझे उसका ऐसा करना अच्छा लगा।
- मेरी एक कविता सुनोगे...
उसने अंग्रेज़ी में चार पंक्तियाँ सुनाईं। मुझे अच्छी लगी लेकिन उसे लगा कि उसका मन रखने के लिए मैंने प्रशंसा की है। उसका चेहरा उतर गया। मेरा मन किया कि उस उतरने को अपनी हथेली से उतार दूं लेकिन मैं वैसे ही, वहीं बैठा रहा। अब सोचता हूं कि उसके अपराध में मुझे जेल भी भेज दिया जाता तो भी मुझे उसकी उदासी उतारने के लिए कुछ करना चाहिए था।
- यह क्लिप तुम ही ले जाना, खेलते रहना।
वह अचानक बोली। मैं उठकर चलने को हुआ और क्लिप भूल गया।
- ‘जाने तू या जाने ना’ देखने चलोगे?
- हाँ..
- लेकिन मैं तो अगले हफ़्ते जा रही हूँ।
- फिर कैसे देखेंगे?
- अलग अलग देख लेंगे एक ही वक़्त पर...
- जैसे चाँद को देखा करते थे?
- हाँ, जैसे चाँद को देखा करते थे...और तुम डूबते हुए सूरज को चाँद समझ कर देखते रहते थे...
- तुम्हें याद है?
- नहीं, मैं पिछले साल भूल गई थी।
- मैंने चाँद देखना सीख लिया है...
- तुम खुश रहा करो।
- नहीं रहूंगा।
- जानते हो, तुममें और मुझमें बहुत कुछ एक सा है...
- जितनी बार मिलते हैं, यह एक सा और बड़ा हो जाता है।
वह चुप रही।
- तुम ओशो ज्यादा पढ़ने लगी हो?
- नहीं, साल भर से पढ़ा ही नहीं।
मैं न चाहते हुए भी क्लिप को भूलता जा रहा था।
- अब तुम्हें चलना चाहिए।
- मैं बहुत ज़िद्दी हूं...
- तो...
वह मुस्कुराई।
- जा रहा हूं।
विदा होते हुए हम गले नहीं मिले, जैसे मिलते तो आसमान टूट पड़ता।
उसके दरवाजे के बाहर भी एक चित्र लगा था, जिस में पानी था, आग थी, लड़का था, शहर था और ईश्वर नहीं था।



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10 पाठकों का कहना है :

Arun Aditya said...

अच्छा लिखा है, बधाई।

Pratyaksha said...

ईश्वर नहीं था ..ये गलत बात हो गई । दो जूस और बटर टोस्ट में ही तो ईश्वर बसता है ....

Rajesh Roshan said...

दरवाजे के बाहर जो लगा था... बहुत ही बढ़िया... बधाई

Anonymous said...

jaise milenge to aasman tut padega,maine chand dekhna sikh liya hai,wah bahut hi sundar bhav,badhai.

शायदा said...

अच्‍छा किया आसमान को टूटने से रोक लिया, कम से कम चांद के रहने का ठिकाना तो बचा रहा। कोई यहां से देखे या वहां से, चांद तो देख ही सकते हैं।

jj said...

बहुत ही बढ़िया लिखा है, मज़ा आ गया। लिखते रहिये :)

महेन said...

गले मिलकर तो पता नहीं क्या होता मगर न मिलकर ईश्वर को तो ग़ायब कर दिया।
चेहरे की उतरन को हथेली से ही सही कम से कम उतार देते तो भी शायद ईश्वर उस पेंटिंग में दीख जाता।
आपका सामान चुराने का जी हो चला है बंधु।
शुभम।

Anonymous said...

वाकई ये आपका सौन्दर्य बोध ही है.
शुभम्.

Unknown said...

behad khubsurat soach hai. ladki hai to pani nahi.... ladka hai to isvaar hi nahi.............. badhiya hai.......

Unknown said...

behad khubsurat soach hai. ladki hai to pani nahi.... ladka hai to isvaar hi nahi.............. badhiya hai.......