उन्हें पागलपन की हद तक
पसंद थे
आयत, त्रिभुज और गोले,
और यही था उनका आग्रह,
पूर्वाग्रह,
प्रलोभन
या षड्यंत्र
कि मैं भी करुं उन्हें पसन्द
और सौभाग्यवश
मुझे नहीं पसन्द थे वे निर्जीव आकार
जिनमें से गंध आती थी हमेशा
मन्दिर में बैठी
अहंकारी नैन-नक्श वाली
गोरी मूर्तियों की।
अहा! दुर्भाग्य...
हमारे मास्टरों के चेहरे
इतने सपाट थे
कि उन्होंने नहीं किया होगा कभी प्रेम,
इस पर लगाई जा सकती थी
हज़ारों की शर्त।
इसीलिए जब हमें पढ़ाया गया इतिहास
तो पढ़ाए गए साम्राज्य, लड़ाइयाँ और विद्रोह।
इतिहास की निष्ठुर किताबों में
हम तरसते रहे
एक अदद प्रेम-कहानी के लिए।
उन्होंने जब पढ़ाई कविताएँ
तो अपनी यांत्रिकता से
वे दिखने लगते थे इतने कुरूप
कि डरकर हमारा सौन्दर्य-बोध
क्लास छोड़कर
जंगलों में भाग जाता था।
संसार भर में चित्रकला
या हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने वाली कठोर माँएं
स्वेच्छा से इतनी अभागी थी
कि उन्होंने अपने बच्चों को रटवाए
झुर्रियों वाले पहाड़े,
बेटियों को होमसाइंस,
बेटों को फ़िजिक्स।
बेजान, बेतुके नामों की बजाय
काश हमारे बोटनी के टीचर ने
सुझाया होता
प्रेमिका के बालों पर लगाए जा सकने वाले
फूल का नाम,
काश मुझे दिया जाए एक अवसर
कि भूल सकूं
लम्ब, कर्ण, आधार
और पाइथागोरस थ्योरम।
काश कि माँ
मुझसे नाराज़ होने की
कीमत लिए बिना ही
अब भी समझ पाए
कि इंजीनियर बनने से बहुत बेहतर होता
आम तोड़ना,
बाँसुरी बजाना,
कविताएँ लिखना
या बस सपने देखते रहना भी।
आप क्या कहना चाहेंगे? (Click here if you are not on Facebook)
8 पाठकों का कहना है :
माँ तो जब भी सोचेगी आपकी भलाई के लिए ही सोचेगी.
भावों का चित्रण बहुत उम्दा किया है.
थोड़ा ये, थोड़ा वो-कुछ समय के बंटवारे से अच्छा लगेगा मन को आपके.
गौरव...हमेशा ही अच्छा लिखते हो. ये कविता भी खालिस तुम्हारे अंदाज़ की उम्दा कविता है.
बढिया कविता,
अब क्या करें, जो होना था वो तो हो चुका :-)
हम भी घरवालों के चक्कर में फ़ंस गये थे । बापू ने एक बार कहा था कि हाईस्कूल में बढिया नम्बर आ गये तो लाईफ़ बन जायेगी । उस चक्कर का अभी तक भी कोई अन्त नहीं दिख रहा है :-)
गौरव मैं भी यही सोचता हू कि यह इतिहास में हमे सिर्फ़ लड़ईया क्यों पढ़ाई जाती है, या जब भी कोई पूछता है टू ये क्यों पूछता है कि पानीपत की पहली, दूसरी या तीसरी लड़ाई कब हुई थी.
बेहद उम्दा सोच. अच्छा लगा पढ़कर
तो छुट्टियों का उपयोग आम तोड़ने में लगाया जा रहा है ?
बहुत अच्छी लगी ये कविता ..आगे भी ऐसे ही इंजिनियरी करते करते बाँसुरी बजाते रहना ..बजेगी ही शायद ..
मां को नाराज मत करना, मैं तुम्हें उस इंजीनियर से मिलवा दूंगी जो आम तो नहीं तोड़ता पर बांसुरी, गिटार सब बजाता है। रुला देने वाली कविताएं लिखता है और ढेर सारे सपने देखता है।
जानते हैं...कविता ही है शायद या थोड़े से कुछ और ख़्वाब, जो जीने के लिए जरूरी साँसें मुहैया करवाते रहते हैं।
शायदा जी, मैं भी माँ को नाराज़ नहीं करना चाहता लेकिन शायद उसे वह इंजीनियर पसंद ही नहीं, जिससे आप उसे मिलवाएंगी। :(
फिर भी आप कोशिश करके देख लीजिए...
पल्लवी जी, आप यूं ही पढ़ती रहिए। शुक्रिया।
उड़न तश्तरी जी, ये बीच का रास्ता बहुत कष्टदायक भी होता है। हाँ, माँ भले का ही सोचती है, इसमें कोई दो राय नहीं हैं।
नीरज जी और राजेश जी, सबको शायद किसी न किसी मात्रा में यह सब चुभता ही है।
और प्रत्यक्षा जी, आपने लगभग ठीक ही समझा। छुट्टियों का इससे बेहतर उपयोग हो सकता था क्या? वैसे थोड़ी ही छुट्टियाँ हैं..
बाँसुरियाँ बजती रहें, इसी कामना के साथ...
kahin uljha tah, bahut achcha likh rahe hain aap....
Post a Comment