- बहुत देर हो गई है।
वह एक बार में ही ऐसे बोली, जैसे दस बार बोल रही हो।
उसका घर हमेशा भरा रहता था और देर कुछ जल्दी ही हो जाती थी। इतना भीड़ भड़क्का कि मैं वहाँ साँस भी लेता था तो जैसे सबको मेरी घुटन महसूस हो जाती थी और सब आँखें फाड़ फाड़कर मुझे देखने लगते थे। कई बार तो मेरे पहुँचने से पहले ही देर का होना हुआ मिलता था। मैं मिन्नतें करके देर को किसी तरह आगे बढ़वाता रहता था और हर बार लौटते हुए मुझे लगता था, जैसे मैं बहुत सारे अहसानों के बोझ तले दबा हूं।
- बहुत देर हो गई है...
उसने फिर से कहा।
- तो?
- मुझे खाना भी बनाना है।
- दो ही तो लोग हो...
इतनी भीड़ उन दो की ही थी या उस अकेली की ही। बाकी बहुत सारा सामान भी था। लेकिन हर समय ऐसा लगता था कि घर में दर्जन भर लोग तो हैं ही..और दो चार बच्चे भी।
- हम जिनसे प्यार करते हैं, उनके जाने के बाद भी उनका एक हिस्सा हमेशा के लिए हमारे पास रह जाता है।
एक बार वह किसी पत्रिका में पढ़ कर मुझे बता रही थी और मैं झट से पूछ बैठा था कि तुम्हारे घर में इतनी भीड़ क्यों है?
- कल से ऐसा लग रहा है जैसे सब कुछ ख़त्म होने वाला है...
मैंने कहा तो वह चौंकी नहीं। वह चौंकना चाहती थी, मगर नहीं चौंक पाई।
- सब कुछ क्या?
- मुझे लगता है कि किसी दिन उसका तबादला हो जाएगा और तुम उसके साथ अचानक यह घर छोड़कर कहीं भी चली जाओगी। ऐसी जगह, जहाँ मैं तुम्हें खोज भी न पाऊँ....
उसने नहीं कहा कि ऐसा नहीं होगा। मुझे लग रहा था कि ऐसा होने वाला है।
तभी उसे लगा कि बाहर कोई है। जब मैं वहाँ होता था तो वह अपने कान दरवाजे पर रख आती थी और आँखें गली के मोड़ पर। इसीलिए तो जब मैं चिल्लाता था तो उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आ पाता था। वह शायद मुझे देख भी नहीं पाती थी। एक दिन मैं जा नहीं पाया और अगले दिन गया तो वह कहती रही कि कल तुम जो नीली शर्ट पहनकर आए थे, वह अच्छी नहीं लग रही थी। मैं आश्चर्य से उसकी सूनी आँखें पढ़ने की कोशिश करता रहा था। मुझे लगा था कि वह मेरे जाने के बाद उसके आने पर भी मुझसे ही बात करती रहती होगी।
वह दौड़कर गई और दरवाजे पर देखकर फिर लौट आई।
- मैं लेट जाऊँ?
- नहीं...
उसके मना करने पर भी मैं लेट गया था। अब वह अपने बिस्तर पर नहीं बैठी, खड़ी रही।
उस नर्म बिस्तर पर लेटते ही मेरे अन्दर दुख की एक लहर सी उठी और मैं अचानक उठकर खड़ा हो गया। शायद वह जानती थी कि ऐसा होगा, इसीलिए उसने मुझे वहाँ लेटने से मना किया होगा।
मैं बिना कुछ कहे ही बाहर निकल आया और देर तक, दूर तक दौड़ता रहा। मैं उस दिन सच में पलायन करना चाहता था, कहीं दूर जाकर छिप जाना चाहता था। मैं इतना निराश हो गया था कि कुछ घंटों के लिए भगवान को भी मानने लगा था।
अगले दिन सूरज नहीं उगा। दिन भर पूरे शहर की सड़कों पर मर्करी बल्ब जलते रहे। उस दिन करवा चौथ होनी थी, लेकिन दूर से भागकर सीधी अमावस आ गई थी। मैं उसका घर भूल गया था। अँधेरे में किसी तरह ढूंढ़कर मैं उसके घर तक पहुँचा तो ताला लटक रहा था। उसकी आँखें वहीं दरवाजे की चौखट के ऊपर रखी थी। मैंने उन्हें उठाकर अपनी आँखों में रख लिया। उसने एक बात का दिया जलाकर अपनी दहलीज पर रख छोड़ा था। वह बात दुनिया की अकेली बची हुई बात थी। बाकी सब बातें निरर्थक होकर मर गई थीं।
उसके बाहर वाले कमरे की अलमारी के किवाड़ पर एक शाम मैंने पेंसिल से एक कविता लिखी थी...
...... बहुत देर हो जाने से ठीक पहले
तुम मुझे पुकारकर बुलाने के लिए
मुझे याद कर रात भर रोना
और मैं नहीं आ पाऊँ तो
बहुत देर होने के ठीक बाद
सफ़र के लिए पूरियाँ बनाना
और आलू की सूखी सब्जी भी
और चली जाना बस में बैठकर
गृहशोभा पढ़ते हुए।
[+/-] |
बहुत देर होने के ठीक बाद |
[+/-] |
जैसे चाँद को देखा करते थे |
- क्या खाओगे तुम?
और मेरे कुछ कहे बिना ही उसने ऑर्डर देने के लिए फ़ोन उठा लिया।
- दो जूस और दो बटर टोस्ट।
गर्मी की दुपहरी में वह कम से कम बटर टोस्ट खाने का तो टाइम नहीं था, चाहे ए सी चल रहा हो और बटर टोस्ट मुझे कितना भी पसन्द हो। माँ वहाँ होती तो आँखें जरूर तरेरती।
माँ, उसके साथ होता था तो मुझे तुम सबसे ज्यादा याद आती थी।
- मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए...बस कभी कभी तुम्हारी गोद में लेटकर रोने का मन होता है...
कुछ नहीं चाहने के बाद वाली बात मैं शायद माँ से भी एकाध बार कह चुका हूं। पक्का तो याद नहीं कि कहा है या नहीं, लेकिन कहने का मन बहुत बार किया है।
वह डर सा गई।
- अभी मत रोना...
और उसने अपने पैर समेट लिए जो मेरे पैरों के पास ही थे।
- नहीं, मुझे पता है कि लड़कों को किसी के सामने नहीं रोना चाहिए।
- और जो मेरे सामने रोया करते थे...
- गोद में कहाँ लेटता था?
वह चुप हो गई। दीवार पर एक चित्र टँगा था, जिसमें आग थी, लड़की थी, बिल्ली थी, मिट्टी थी और पानी नहीं था।
- तुम्हारा सौन्दर्य-बोध अच्छा हो गया है...
मैं चित्र में डूब गया और जब डूबता रहा तो मर जाने का मन किया, लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़कर बचा लिया। बटर टोस्ट और जूस आ गया था।
हममें बहुत छीना-झपटी हुई ब्रेड खाने के लिए.....टुकड़े टुकड़े करके हम आधे घंटे तक चार स्लाइस खाते रहे।
- स्कूल में हिन्दी की क्लास में जब चतुर्वेदी सर तुम्हें खड़े होकर पाठ पढ़ने को बोलते थे तो मुझे बहुत अच्छा लगता था।
- क्यों?
मैं मुस्कुरा दिया।
- तुम्हारा बोलना मुझे अच्छा लगता था...तुम नदी की तरह बहते हुए पढ़ते थे। मैं तुम्हारी नकल करने की भी कोशिश किया करती थी। करके दिखाऊँ?
हिन्दी का कोई अख़बार वहाँ नहीं था। उसने कहीं से टाइम्स ऑफ इंडिया ढूंढ़ निकाला और जोर जोर से एक आर्टिकल मेरी तरह पढ़ने की कोशिश करने लगी। दो चार लाइन पढ़कर वह समझ गई कि वह मेरी तरह पढ़ना भूल गई है। उसने मुस्कुराकर अख़बार मुझे थमा दिया। मैं पढ़ने लगा....
मैं उसके हेयर क्लिप से खेल रहा था, जिसके दो तीन दाँत मैं तोड़ चुका था और जब भी खट से कोई दाँत टूटता था तो वह मुझे डाँट देती थी।
वह सामने बैठी थी। क्लिप उसके बालों में नहीं था।
- कभी कभी मन करता है कि शादी कर लूं...
वह बोली और मुझे हँसी आ गई। वह भी हँसने लगी।
- क्यों हँस रहे हो?
वह पूछती रही, मगर मैंने नहीं बताया।
- तुम्हारा भी मन करता है कभी कभी?
- हाँ...कभी कभी करता है...
अब हम बराबरी पर थे।
- जानती हो...मैंने अमेरिका के एक रेडियो चैनल पर कविता पढ़ी...
- तुम इतने फ़ेमस हो गए हो?
उसने औपचारिकता के लिए पूछा और फिर जवाब भी नहीं सुनना चाहा, जैसे मैं झूठ बोल रहा हूं या इसमें कुछ बड़ी बात ना हो। मुझे उसका ऐसा करना अच्छा लगा।
- मेरी एक कविता सुनोगे...
उसने अंग्रेज़ी में चार पंक्तियाँ सुनाईं। मुझे अच्छी लगी लेकिन उसे लगा कि उसका मन रखने के लिए मैंने प्रशंसा की है। उसका चेहरा उतर गया। मेरा मन किया कि उस उतरने को अपनी हथेली से उतार दूं लेकिन मैं वैसे ही, वहीं बैठा रहा। अब सोचता हूं कि उसके अपराध में मुझे जेल भी भेज दिया जाता तो भी मुझे उसकी उदासी उतारने के लिए कुछ करना चाहिए था।
- यह क्लिप तुम ही ले जाना, खेलते रहना।
वह अचानक बोली। मैं उठकर चलने को हुआ और क्लिप भूल गया।
- ‘जाने तू या जाने ना’ देखने चलोगे?
- हाँ..
- लेकिन मैं तो अगले हफ़्ते जा रही हूँ।
- फिर कैसे देखेंगे?
- अलग अलग देख लेंगे एक ही वक़्त पर...
- जैसे चाँद को देखा करते थे?
- हाँ, जैसे चाँद को देखा करते थे...और तुम डूबते हुए सूरज को चाँद समझ कर देखते रहते थे...
- तुम्हें याद है?
- नहीं, मैं पिछले साल भूल गई थी।
- मैंने चाँद देखना सीख लिया है...
- तुम खुश रहा करो।
- नहीं रहूंगा।
- जानते हो, तुममें और मुझमें बहुत कुछ एक सा है...
- जितनी बार मिलते हैं, यह एक सा और बड़ा हो जाता है।
वह चुप रही।
- तुम ओशो ज्यादा पढ़ने लगी हो?
- नहीं, साल भर से पढ़ा ही नहीं।
मैं न चाहते हुए भी क्लिप को भूलता जा रहा था।
- अब तुम्हें चलना चाहिए।
- मैं बहुत ज़िद्दी हूं...
- तो...
वह मुस्कुराई।
- जा रहा हूं।
विदा होते हुए हम गले नहीं मिले, जैसे मिलते तो आसमान टूट पड़ता।
उसके दरवाजे के बाहर भी एक चित्र लगा था, जिस में पानी था, आग थी, लड़का था, शहर था और ईश्वर नहीं था।
[+/-] |
आँख में धूप है |
सफेद सा
काला सुराख हो गया है दिल में
जो फूलकर कुप्पा हो जाता है
बेमौके,
जैसे किसी मुम्बइया मसाला फ़िल्म को देखते हुए
अचानक रो देना।
तुम हर बात में
ले आते हो रोना,
जैसे समुद्र ले आता है चाँद,
रात ले आती है भूख,
लड़की ले आती है पतंग,
लड़का ले आता है गोल-गोल चरखा,
हवाई जहाज ले जाता है आसमान,
रोटी ले जाती है ज़िन्दग़ी।
ओह!
सब उलझ गया,
कट गई पतंग,
कम्बख़्त आसमान...
आँख में धूप है,
मींच लो,
जल जाएगी आँख
या धूप।
धूप की रात कच्ची है
तभी खट्टी है,
भूसे में रख दो, पक जाएगी
या रो लो शहद
लम्बा-लम्बा।
पगले,
रोना अकर्मक है
और पेड़ पर नहीं लगती रात
कि तोड़कर खाई जा सके
आड़ू, चीकू, अमरूद की तरह।
बहुत साइकेट्रिस्ट हैं इस शहर में,
क्यों नहीं आती नींद ?
फ़िल्मी हीरोइनों की तरह
बेकारी बहुत ख़ूबसूरत होती है,
देखा जा सकता है उसके आर-पार,
सोचा जा सकता है कुछ भी
भद्दा, बेतुका, अटपटा।
सिखाया जा सकता है पतंग उड़ाना,
फाड़े जा सकते हैं पोस्टर,
फोड़ी जा सकती हैं सिर से दीवारें,
दीवाना होकर सड़कों पर भटका जा सकता है,
बिना रिज़र्वेशन करवाए
लावारिस होकर जाया जा सकता है
किसी भी शहर,
लाहौर, कलकत्ता, पूना
या बम्बई भी।
[+/-] |
माथा तो नहीं है ना होठ? |
नदी के पार कौन है?
या सब इधर ही पड़े हैं
अधमरे से?
किसने फेंका है
अपने घर के सिर पर पत्थर?
किसने बुलाई है पुलिस
खुद को पकड़वाने के लिए?
भोर के तारे को क्या दुख है कि
लाल-लाल रहती हैं उसकी आँखें?
कौन रोया है मेरी छत पर इतना
कि रात भर में उग आई है
मुझसे ऊँची घास?
ग्यारह इंच की दूरी से
किसी ने पिस्टल से मारी है गोली
कि माँ की उंगली की
नोक के आकार का
दिल में हो गया है छेद
जिसकी आँखें रहती हैं भरी-भरी।
सड़क पर चल रही हैं गाड़ियाँ,
एक गाड़ी में तुम,
रेड लाइट, स्पीड ब्रेकर, यू टर्न
नया शहर
जैसे जंगल,
उतर क्यों नहीं जाती तुम
बाँया पैर पहले रखकर
अपशकुन की तरह
कि जहाँ तक नज़र जाए,
हर पैर पर दिखाई दे
तुम्हारा पैर,
मेरा माथा।
जंगल में लग जाए आग।
हम जब महानगर थे
तब भी अपने घुग्घू कस्बे थे।
बहुत मन किया था कि
शगुन के नोट की जगह
गले लगाकर
तुम्हारे माथे पर रख दूं
स्नेह के होठ।
माथा तो नहीं है ना होठ?
माथे पर से तो नहीं होता ना
शरीर के अन्दर तक जाने का
कोई असभ्य रास्ता
जिसे चूमने के लिए
अधिकार होना जरूरी हो...
हाँडी भर खिचड़ी,
कलफ़ लगे कुरते,
अचार के मर्तबानों जैसे दफ़्तर
और मेरे हिस्से का
छटांक भर आसमान भी,
सब बेमानी हो गए हैं।
सुनो,
मिट्टी में मिल जाना
बहुत आराम देता होगा ना?
[+/-] |
बहुत अनरोमांटिक हूँ मैं |
कंचनजंघा की छत पर
मेरे उबले हुए होठों की भाप से
सेक रहे थे हम
तुम्हारी हथेलियों की गुदगुदी
और हमारे हिस्से नहीं आए
गाँव वाले खेत को जाने वाली पगडंडी
आसमान तक खड़ी हो गई थी,
चलो, अपनी लड़खड़ाहट
इस रास्ते पर बोते हुए
टहलते हुए नीचे चलेंगे,
तुमने कहा था
और मैं कहता रहा था
कि कूद जाते हैं।
तुम सुनहरे रंग की हो
क्योंकि
तुम्हारे बनाए जा सकते हैं जेवर,
तुम्हें पहना जा सकता है,
तुम्हें रखा जा सकता है
तुम्हारे पति की शादी के बाद के
दिखावे के सामान में
सबसे आगे।
काजू, बादाम, किशमिश,
तुम प्लेट में सजे हुए
सूखे मेवों के रंग की भी हो,
जाने क्यों...
हमारे लौटने के बाद
गिलहरियों ने कुतर खाई थी
सारी पगडंडी
और हमारी बची हुई जूठी शराब पीकर
एक गिलहरी रात भर
आसमान से पूछती रही थी
उसके नीले रंग का कारण।
आधे बादामी,
आधे बावरे रंग के बदनाम गिरगिट
मैंने देखे हैं सड़क पर।
समझाओ ना उन्हें
कि ढूंढ़ लें कोई नौकरी
दस से पाँच की
और सीने की फाँकें काटकर
सुबह नाश्ते में खाया करें
ब्रेड बटर के साथ।
कूद ही जाते हैं,
मेरे इस प्रस्ताव पर
बौखला जाती हो तुम
और मेरी आँखों से
दो बूँद खून लेकर
मेरे माथे पर लिख देती हो
मेरा असंवेदनशील होना।
कौनसी रिंगटोन है ये
कि हाथ से कूदकर
धरती पर गिरने को होता है मोबाइल,
ओह!
तुम्हें आया है फ़ोन किसी का,
तुम्हें जल्दी है जाने की
इतनी कि
पिछले मिनट में पाँव रखकर
दौड़ जाना चाहती हो।
छूटते हुए तुम
उस झुनझुने पर
अपनी गुदगुदाती हथेली रखकर
लगभग मेरी ओर मुड़कर
कह ही देती हो
कि बहुत अनरोमांटिक हूँ मैं
और रात अचानक हो जाती है।
[+/-] |
स्त्रियों ने जिन पुरुषों से किया प्रेम |
स्त्रियों ने जिन पुरुषों से किया प्रेम,
जुबान पर मिसरी धरकर
वे पुकारती थी उन्हें
पागल कहकर,
पहले तो तुम्हें भी
भला लगता था ना
प्रेम में उन्माद?
मोहल्ले में मौत हो किसी की,
सिलेंडर फटे रसोई में,
कोई छू दे दस हज़ार वोल्ट का तार
या कोई गंगा में डूब मरे,
मच जाए चीख-पुकार
और मैं किसी के आँगन में,
छत पर
या गली में ही
रुदालियों के कंधों पर सिर रखकर
घंटों तक रोता रहूँ।
मुँहअंधेरे
मुझे एक सपना
अक्सर दीखता है
कि धक्के देकर
मुझे घर से बाहर निकाल रहे हैं
माँ-बाबा।
माँ को डर है शायद
कि धर्म बदलकर
जल्दी ही बन जाऊंगा मैं मुसलमान,
बाबा को लगता है शायद
कि फुटपाथ पर नाक पोंछती हुई
कोई लड़की
मैंने छिपा रखी है ज़मीन में
जिसे किसी दिन
ब्याहकर ले आऊँगा अदालत से।
कभी-कभी प्यार से
माँ कहती है
बाबा को पागल,
मुझे नहीं कहती।
तुम्हारे मेरे घर में कोई मौत हो तो
मातम बनाने के बहाने
मिलेंगे,
देर तक रोएँगे
गले मिलकर।
कोई नहीं रोकेगा तब।
जल्दी करो कि
किसी दिन अचानक
चाय पीते-पीते
मैं फेंकने लगूंगा उठा-उठाकर
किताबें, पेन, कप, ज़िन्दग़ी,
बकने लगूंगा गालियाँ,
बुक्का फाड़कर रोने लगूंगा,
पागल हो जाऊँगा।
देख लेना चाहे।
[+/-] |
बहुत बेहतर होता आम तोड़ना, बाँसुरी बजाना, कविताएँ लिखना |
उन्हें पागलपन की हद तक
पसंद थे
आयत, त्रिभुज और गोले,
और यही था उनका आग्रह,
पूर्वाग्रह,
प्रलोभन
या षड्यंत्र
कि मैं भी करुं उन्हें पसन्द
और सौभाग्यवश
मुझे नहीं पसन्द थे वे निर्जीव आकार
जिनमें से गंध आती थी हमेशा
मन्दिर में बैठी
अहंकारी नैन-नक्श वाली
गोरी मूर्तियों की।
अहा! दुर्भाग्य...
हमारे मास्टरों के चेहरे
इतने सपाट थे
कि उन्होंने नहीं किया होगा कभी प्रेम,
इस पर लगाई जा सकती थी
हज़ारों की शर्त।
इसीलिए जब हमें पढ़ाया गया इतिहास
तो पढ़ाए गए साम्राज्य, लड़ाइयाँ और विद्रोह।
इतिहास की निष्ठुर किताबों में
हम तरसते रहे
एक अदद प्रेम-कहानी के लिए।
उन्होंने जब पढ़ाई कविताएँ
तो अपनी यांत्रिकता से
वे दिखने लगते थे इतने कुरूप
कि डरकर हमारा सौन्दर्य-बोध
क्लास छोड़कर
जंगलों में भाग जाता था।
संसार भर में चित्रकला
या हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने वाली कठोर माँएं
स्वेच्छा से इतनी अभागी थी
कि उन्होंने अपने बच्चों को रटवाए
झुर्रियों वाले पहाड़े,
बेटियों को होमसाइंस,
बेटों को फ़िजिक्स।
बेजान, बेतुके नामों की बजाय
काश हमारे बोटनी के टीचर ने
सुझाया होता
प्रेमिका के बालों पर लगाए जा सकने वाले
फूल का नाम,
काश मुझे दिया जाए एक अवसर
कि भूल सकूं
लम्ब, कर्ण, आधार
और पाइथागोरस थ्योरम।
काश कि माँ
मुझसे नाराज़ होने की
कीमत लिए बिना ही
अब भी समझ पाए
कि इंजीनियर बनने से बहुत बेहतर होता
आम तोड़ना,
बाँसुरी बजाना,
कविताएँ लिखना
या बस सपने देखते रहना भी।
[+/-] |
अधूरा नहीं छोड़ा करते पहला चुम्बन |
अधूरा नहीं छोड़ा करते
पहला चुम्बन,
जब विद्रोह करती हों,
फड़फड़ाती हों
निर्दोष होठों की बाजुएँ
नहीं बना करते अंग्रेज़,
नहीं कुचला करते उनकी इच्छाएँ
सन सत्तावन के गदर की तरह।
ऊपर पंखा चलता है।
आओ नीचे हम
रजनीगन्धा के फूलों से
छुरियाँ बनाकर
काट डालें अपने चेहरे,
तुम मेरा
मैं तुम्हारा
या तुम मेरा,
मैं अपना!
सिपाहियों को मिला है आदेश
भीड़ को घेरने का,
बेचारे सिपाहियों ने चला दी हैं
बेचारी छुट्टी भीड़ पर
बेचारी छोटी छोटी गोलियाँ।
फिर मत कहना कि
अपनी मृत्यु का दिन
मालूम होते हुए भी
मैंने नहीं किया था
तुम्हें सावधान कि
तुम अपना खिलंदड़पना छोड़कर
सोच सको
भावुक होने के विकल्प के बारे में भी।
क्या पता कि
अधूरे छूटे हुए पहले चुम्बन
बन जाते हों आखिरी
इसलिए मन न हो, तो भी
अधूरा नहीं छोड़ा करते
किसी का पहला चुम्बन।
नब्बे साल बाद सच होते हैं
मंगल पाण्डे के शाप।