श्रीनगर की एक मस्ज़िद में मैं पढ़ना चाह रहा हूं गायत्री-मंत्र

श्रीनगर की एक मस्ज़िद में
मैं पढ़ना चाह रहा हूं
गायत्री-मंत्र
जोर जोर से चिल्लाकर।
रात बहुत हो गई है,
खड़खड़ा रहा है
किसी का टाइपराइटर,
आसमान में गूँज रहे हैं
लाल, नीले, पीले सायरन
और टाइपराइटर की उंगलियाँ
खड़खड़ा नहीं रही,
कूक रही हैं,
मैं अपने कान उतारकर
चिपका देता हूं उस खिड़की पर
जिसके दूसरी तरफ़
एक माँ ने मीठा दूध लाकर दिया है
टाइपराइटर वाले लड़के को,
रुक गई हैं उंगलियाँ,
कोयलें प्यार कर रही हैं
फ़ुर्सत पाकर,
और मैं बेकन्ना होकर
जब उस गली की एक अपाहिज दुकान पर
माँगता हूं कश्मीरी चाय
तो चाँद की लौ
लपलपाकर बुझने को होती है,
मुझ पर तन जाती हैं संगीनें,
मुझे नहीं दी जाती चाय
क्योंकि उन्होंने कह दिया है
कि मुझे नहीं दी जानी चाहिए।

छप छप छपाक
कोई कूदता है
एक गहरी चोटी से
ऊँची खाई में,
उसके पीछे भाग रहे थे
हरे पत्ते पहने हुए
पहाड़ी जामुनों के रस से सने
चार फौज़ी।

मेरा मन है कि
मुझे देखना है फैशन टी.वी.,
उसे देखते हुए
मुझे बुदबुदाना है गायत्री मंत्र,
मुझे पीनी है
चार कप कश्मीरी चाय,
मुझे रात के बारह बजे
पिंक फ़्लॉयड के ‘हाई होप्स’ को
लाउड स्पीकर पर गाना है
और लावारिस होकर
स्टेशन की बेंच पर
सुबह दस बजे तक सोना है,
मुझे जूते पहनकर करनी है
मन्दिर में पूजा,
लेटकर देर तक पढ़नी है
अपने भगवान की नमाज़,
मेरा मन है कि
देवदार के पत्तों पर
अपनी खोई हुई प्रेमिका के नाम
एक कविता लिखकर
डल में बहा दूं,
मेरा मन है कि
दिल्ली के किसी अख़बार के
शिकायती कॉलम के लिए
छोटी सी चिट्ठी भेजूं
कि मेरी दीवार के उधर वाले घर में
पिछले हफ़्ते किए हैं
उन्हीं हरे-जामुनी फ़ौजियों ने
चार निर्मम बलात्कार।

मैं नहीं जानता
कि कहाँ है दिल्ली,
जानना भी नहीं है मुझे,
मैं बस अपना शहर
अपनी तितलियों की चोंच में छिपाकर
कहीं दूर भाग जाना चाहता हूं।
भाग रहा हूं मैं
निहत्था,
छप छप छपाक...

मेरे पीछे भाग रहे थे
हरे पत्ते, पहाड़ी जामुनों वाले
चार फ़ौजी।

मेरे कान भीग गए हैं
रात की बारिश में,
वह लड़का ऊँघने लगा है,
उसकी माँ लाई है
कश्मीरी पत्तियों की चाय,
मेरे कान धड़क रहे हैं,
मेरे कान मुस्कुरा रहे हैं,
खिड़की के उस पार
अभी कूक रहा है टाइपराइटर
मेरे शहर में।



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7 पाठकों का कहना है :

डॉ .अनुराग said...

Aameen.....

कामोद Kaamod said...

हिम्मते मर्दां मदते खुदा ... )

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया पर असंभव सी इच्छाओं वाली सुन्दर कविता !
घुघूती बासूती

Pratyaksha said...

ये ज़िगज़ैग बहुत अच्छा लगा ....

आशीष कुमार 'अंशु' said...

अच्छा लगा

Geet Chaturvedi said...

बढि़या है भाई.

Pramendra Pratap Singh said...

बहुत खूब गौरव भाई, आपनी भावनाओं को शब्‍दों में बड़ी सुन्‍दरता से पिरोया है। बधाई