वे, जो चाँद पर रहते थे
या मंगल, बृहस्पति, शनि पर कहीं
या धरती की गहरी कोख में
बसाए हुए थे अपने शहर
या तब थे धरती पर
जब सुनते थे कि
सब ग्रह और सूरज घूमते हैं
उसके चारों ओर।
वे, जो दिन रात नहीं घूम पाते
अपनी
या किसी और की धुरियों पर।
वे,
जो बहुत अतीत के हैं
या किसी अनिश्चित भविष्य के
लेकिन वर्तमान के नहीं हैं;
वे,
जिन्हें चिंघाड़ना आता है,
दहाड़ना आता है,
आता है
रात भर
कुत्तों के साथ विलाप करना
या आती हैं
किसी नई सदी की
मूक भाषाएं
लेकिन बोलना नहीं आता;
वे,
जिन्हें पसन्द नहीं हैं आवरण।
आदिम लोगों की तरह
या आने वाली पीढ़ियों की तरह
जो थूकते हैं
शरीर ढकने की परम्पराओं पर;
वे,
जो सनकी, बीमार, सिरफिरे हैं,
जो नियम ही नहीं समझ पाते
कि उन्हें मानें
या तोड़ सकें;
वे,
जो इतने लाइलाज़ हैं
कि अब तरस भी नहीं आता उन पर,
वे, जो तटस्थ नहीं हैं,
न ही हैं
किसी पक्ष में भी;
वे,
जो अड़ियल, खड़ूस, ज़िद्दी, पागल हैं
और रात रात भर
आसमान को गालियाँ बकते हैं,
वे हम सब
बेवकूफ़, बदतमीज़
या तो पहले के हैं
या कभी बाद के
लेकिन आज के नहीं हैं।
हम बदसूरत
जो गलत वक़्त पर
गलत ज़गह आ धमके हैं,
टाट पर लगे पैबन्द हैं।
हम ढके हुए हैं
आज के सारे सुराख
सिर्फ़ अपने दम पर
लेकिन मनहूस हैं,
इतना चिल्लाते हैं
कि छिपाए नहीं छिपते।
परेशान है ज़माना।
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7 पाठकों का कहना है :
बहुत बढ़िया कविता लगी आभार
बेहतरीन रचना और तुम्हारी लीक से हट कर भी...
***राजीव रंजन प्रसाद
वाह क्या बात है.... ब्लॉग का नया मिजाज़ भी अच्छा लगा
बहुत बढ़िया. पढ़कर अच्छा लगा.
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
ye naya andaj achha laga.....vividhta aapke doosre pahlu ko nikhar deti hai.
गौरव अच्छी रचना है। रोचक अंदाज में तुमने इसे लिखा है ,इसके लिए तुम बधाई के पात्र हो।
परंतु मुझे लगता है कि "वे" से "हम" का transition थोड़ा और smooth हो सकता था, तुमने शायद जल्दीबाजी दिखा दी है। ऎसा मेरा मानना है, शायद गलत भी होऊँ।
बाकी रचना सुंदर तरीके से पिरोई हुई है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
इतनी गालियाँ दोगे तो ज़माना और भी परेशान हो जायेगा बंधु। संभवत: पूरे ज़माने को कविता समझ न आये तो आपके बचने की सूरत हो सकती है।
कविता अच्छी लगी।
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