बोधिसत्व जी की कविताएँ मुझे काफ़ी पसन्द हैं। कल उनसे भी अपने ब्लॉग पर कोई नई कविता छापने की गुहार लगाई है। वे जब तक मेरी गुहार सुनें, तब तक मेरा मन किया कि मैं अपनी पसंद की उनकी कोई कविता छाप दूं। (हालांकि आइडिया नंदिनी जी का था, लेकिन मेरा चुराने का मन किया तो साभार चुरा रहा हूं, आशा है नंदिनी जी को कोई आपत्ति नहीं होगी। )
मैंने उनकी 'हम जो नदियों का संगम हैं' पढ़ी है। बोधिसत्व जी ने माँ, पिता, दीदी सब रिश्तों पर बहुत अच्छा लिखा है। स्त्री पर यह कविता उसी किताब में 'श्रंगारदान में धूल' नाम से है। मेरे विचार से नाम कुछ और भी रखा जा सकता था। लेकिन जो भी है, कविता बहुत गहरी है। मैं कई बार पढ़ चुका हूं। बोधिसत्व की कविता जाननी हो तो आप भी इस कविता को जरूर पढ़ें।
और हाँ, हाथ जोड़ कर अनुरोध है कि इसे किसी महत्वाकांक्षी युवा कवि/ब्लॉगर की कोई महत्वाकांक्षी चाल न समझा जाए। मेरा मन सिर्फ कविता पढ़ने का था तो सोचा कि क्यों न सबको पढ़वा दी जाए।
श्रंगारदान में धूल
1
वह स्त्री अपने घर का रास्ता
भूल गई थी।
वह चाहती थी कि
बच्चों और सूर्य के जागने के पहले
वह चूल्हे तक पहुँच जाए।
पर वह घर का रास्ता
भूली ही रही।
उसे घर तक
पहुँचने के लिए
वैतरणी पार करनी थी
उसे पता था
बगैर घर के स्त्रियाँ
जंगल होती हैं,
मेघ, बसंत, फूल होती हैं
नदी होती हैं, आँख होती हैं
यौवन होती हैं
और उसे पता था
बगैर घर के स्त्रियाँ
कुछ भी नहीं होतीं।
घर तक पहुँचने के लिए
वह वैतरणी में नाव चलाना चाहती थी
वह नाव की खोज में
जंगल तक गई
जहाँ पत्ते झर रहे थे
और एक दूसरी स्त्री
(हिरनी की तरह घायल थी जो)
अपने शिकारी के लिए रो रही थी।
वह स्त्री जंगल में थी
तभी अपनी आँखों में रक्तस्राव धारण किए
सूर्य उगा
उस स्त्री के बच्चे
शिकार करने चले गए
और वह जंगल में
हिरनी की तरह रहने लगी।
2
वह स्त्री जहाँ रहती थी
वहाँ स्त्रियों को
अपना मार्ग जानने और चुनने का
हक नहीं था।
दरअसल वहाँ लोग मानते थे कि
स्त्रियाँ अपना मार्ग
तय नहीं कर सकतीं
क्योंकि उन्हें अपने रास्ते से अधिक
अपने गर्भ का ख़याल रहता है।
वह स्त्री जहाँ रहती थी
वहाँ स्त्रियों का कहीं
कोई घर नहीं होता था
बल्कि स्त्रियाँ ही घर होती थीं
जिनमें रहते थे लोग
उनसे निर्लिप्त
और वह थी कि
घर की खोज में थी लगातार।
वह घर खोजती थी
और किले में पहुँच जाती थी
जहाँ असंख्य स्त्रियाँ थीं
अपने अनुपम दुखों पर मोहित
अपनी संरचना पर प्रसन्न
अपने बादलों से हीन
अपने घर से परे।
वह स्त्री चाँद को
नदी में झाँककर और सूर्य को
खेत में से देखना चाहती थी
पर उसे समझाया गया कि
चाँद आँगन से और सूर्य
घूंघट से अच्छा लगता है।
3
उस स्त्री के बच्चों ने उसे बहुत खोजा
उन्होंने नदियाँ खंगाल डालीं
खेतों को रौंद डाला
घरों को युद्ध-भूमि बना दिया
और कवियों ने उसे
रास्ता दिखाने के लिए कविताएँ लिखीं
गलदश्रु भावुकता से भरपूर
वे उसके विलाप और हँसी में
अंतर करते रहे।
4
बाद में
उस स्त्री के घर की धूल को
किसी स्त्री ने
अपने श्रंगारदान में रख लिया।
[+/-] |
बोधिसत्व की एक स्त्री कविता |
[+/-] |
इससे पहले कि शराब पीना खो दे अपनी अश्लीलता |
इससे पहले कि
शराब पीना
खो दे अपनी अश्लीलता
और आम हो जाए
क्रिकेट खेलने की तरह,
उसे लगने लगा है कि
उसे शुरु कर देनी चाहिए शराब।
उसने चुन ली है नीली दीवार,
उस पर लेटकर
वह खेल रहा है ‘चिड़िया उड़’,
उसे प्रेम हो गया है चिड़िया से,
वह खेल रहा है
’मत उड़ चिड़िया’,
चिड़िया को पसंद है
लाल तिनकों का घोंसला
जैसे उसे पसन्द हैं कविताएँ
या उसके पिता को पसन्द है
चाय सुड़कते हुए अख़बार पढ़ना।
यह हज़ारवीं बार है
जब वह लालकिले की एक दीवार पर
दिल बनाकर
पेंसिल से कुरेद आया है
तीर का निशान।
एक लड़की ने फूल से कहा है
कि हँस रही है वह,
फूल मुरझा गया है।
ट्रेन में हो रही है तलाशी
लालकिले पर हमला करने वाले
आतंकवादियों के लिए,
उसके पास नहीं है टिकट,
वह रो रहा है,
डिब्बे में लगा है एक शामियाना
लाल रंग का,
चिड़िया को पसंद था
लाल कालीन,
बंजी जंपिंग
और रॉक क्लाइम्बिंग।
पहाड़ों पर मुट्ठियाँ धँसाकर चढ़ती
चिड़िया के लिए
रो रहा है वह,
किसी ने आकर उसकी आँख में
रख दी है लड़की,
चिड़िया का पंख
और आँख भर तौलिये।
उसके पिता कल परसों में
दायर करने वाले हैं
ज़िला कोर्ट में अपील
कि प्रतिबन्ध लगा दिया जाए
नीले दुख वाली कविताओं पर।
और इससे पहले कि
वह अपने कबाड़ वाले कमरे में
किसी रात गिरफ़्तार कर लिया जाए
अश्लील उदास कविताएँ लिखते हुए,
ज़िन्दा रहने की आखिरी संभावना
को अवसर देने के लिए
उसे लगने लगा है कि
उसे जल्दी शुरु कर देनी चाहिए शराब।
[+/-] |
श्रीनगर की एक मस्ज़िद में मैं पढ़ना चाह रहा हूं गायत्री-मंत्र |
श्रीनगर की एक मस्ज़िद में
मैं पढ़ना चाह रहा हूं
गायत्री-मंत्र
जोर जोर से चिल्लाकर।
रात बहुत हो गई है,
खड़खड़ा रहा है
किसी का टाइपराइटर,
आसमान में गूँज रहे हैं
लाल, नीले, पीले सायरन
और टाइपराइटर की उंगलियाँ
खड़खड़ा नहीं रही,
कूक रही हैं,
मैं अपने कान उतारकर
चिपका देता हूं उस खिड़की पर
जिसके दूसरी तरफ़
एक माँ ने मीठा दूध लाकर दिया है
टाइपराइटर वाले लड़के को,
रुक गई हैं उंगलियाँ,
कोयलें प्यार कर रही हैं
फ़ुर्सत पाकर,
और मैं बेकन्ना होकर
जब उस गली की एक अपाहिज दुकान पर
माँगता हूं कश्मीरी चाय
तो चाँद की लौ
लपलपाकर बुझने को होती है,
मुझ पर तन जाती हैं संगीनें,
मुझे नहीं दी जाती चाय
क्योंकि उन्होंने कह दिया है
कि मुझे नहीं दी जानी चाहिए।
छप छप छपाक
कोई कूदता है
एक गहरी चोटी से
ऊँची खाई में,
उसके पीछे भाग रहे थे
हरे पत्ते पहने हुए
पहाड़ी जामुनों के रस से सने
चार फौज़ी।
मेरा मन है कि
मुझे देखना है फैशन टी.वी.,
उसे देखते हुए
मुझे बुदबुदाना है गायत्री मंत्र,
मुझे पीनी है
चार कप कश्मीरी चाय,
मुझे रात के बारह बजे
पिंक फ़्लॉयड के ‘हाई होप्स’ को
लाउड स्पीकर पर गाना है
और लावारिस होकर
स्टेशन की बेंच पर
सुबह दस बजे तक सोना है,
मुझे जूते पहनकर करनी है
मन्दिर में पूजा,
लेटकर देर तक पढ़नी है
अपने भगवान की नमाज़,
मेरा मन है कि
देवदार के पत्तों पर
अपनी खोई हुई प्रेमिका के नाम
एक कविता लिखकर
डल में बहा दूं,
मेरा मन है कि
दिल्ली के किसी अख़बार के
शिकायती कॉलम के लिए
छोटी सी चिट्ठी भेजूं
कि मेरी दीवार के उधर वाले घर में
पिछले हफ़्ते किए हैं
उन्हीं हरे-जामुनी फ़ौजियों ने
चार निर्मम बलात्कार।
मैं नहीं जानता
कि कहाँ है दिल्ली,
जानना भी नहीं है मुझे,
मैं बस अपना शहर
अपनी तितलियों की चोंच में छिपाकर
कहीं दूर भाग जाना चाहता हूं।
भाग रहा हूं मैं
निहत्था,
छप छप छपाक...
मेरे पीछे भाग रहे थे
हरे पत्ते, पहाड़ी जामुनों वाले
चार फ़ौजी।
मेरे कान भीग गए हैं
रात की बारिश में,
वह लड़का ऊँघने लगा है,
उसकी माँ लाई है
कश्मीरी पत्तियों की चाय,
मेरे कान धड़क रहे हैं,
मेरे कान मुस्कुरा रहे हैं,
खिड़की के उस पार
अभी कूक रहा है टाइपराइटर
मेरे शहर में।
[+/-] |
बालकनी की पीठ से पीठ टिकाकर नाखून काटती हुई लड़की के लिए |
जिन जिनको ऐतराज़ है
सुबह देर से जगने पर
और जो सूरज चढ़ने से पहले ही
बेवक़्त झिंझोड़कर जगाते हैं किसी को,
उन सबमें आकर बैठ गई है मेरी माँ
उतनी ही सहजता से
जैसे तुम नाखून काटती हुई अक्सर
बालकनी की पीठ से
अपनी पीठ टिकाकर बैठ जाती हो।
तुम्हारे कमरे में खुलती है ना
बालकनी की पीठ?
जैसे मेरे कमरे में खुलता है
जलती अंगीठी का दरवाज़ा।
किसी ने भरी हुई दवात
उड़ेल दी है
तुम्हारी स्कर्ट पर,
तुम्हारा रोना
मेरी शर्ट की जेब से
भीतर को रिस रहा है,
मैंने अंगीठी में फूंक दिया है
खाली दवात के हाथ का चेहरा,
कोई जल रहा है,
मर गई है दवात।
सब देख रहे हैं ‘चन्द्रकांता’।
कोई है दरवाज़े पर,
तुम हो,
तुम माँगती हो चीनी।
तुम माँगती हो चीनी मुझसे
गोल कटोरी देकर,
मैं रख देता हूं उसमें
गोल चाँद की उपमा,
तुम्हारे हाथ की रोटियों के
गोल-गोल सपने,
गोल जंगल में हमारी
गोल झोंपड़ी...
नाराज़ हो जाती हो तुम,
ज़िद करने लगती हो
कि तुम्हें जाना है चीनी लेकर जल्दी।
नहीं,
गोल जंगल में मत रहो पर
तुम मत जाओ।
गोलकुंडा सही, गोलबाज़ार सही, गोलपथ सही,
गोलछा सिनेमा सही...
तुम लौटने लगती हो तेजी से,
मत जाओ,
रुको तुम,
तुम जो भी कहो,
गोल नर्क, गोल कुँआ, गोल मौत,
कुछ भी दो, मगर जाओ नहीं।
तुम बाहर नाली में
फेंक जाती हो
गोल चाँद, गोल रोटियाँ....
सब देख रहे हैं ‘चन्द्रकांता’।
सुना है,
कल पड़ोस में किसी ने कर ली
आत्महत्या।
जानती हो,
जो भी मर रहे हैं
या मरने वाले हैं जल्दी
आज कल परसों में,
दीमकों की तरह
सबको खाए जा रही है
छोड़कर गई प्रेमिकाएँ।
दुनिया के बाकी दुख, दर्द
बकवास हैं,
बहाने हैं सब।
[+/-] |
परेशान है ज़माना |
वे, जो चाँद पर रहते थे
या मंगल, बृहस्पति, शनि पर कहीं
या धरती की गहरी कोख में
बसाए हुए थे अपने शहर
या तब थे धरती पर
जब सुनते थे कि
सब ग्रह और सूरज घूमते हैं
उसके चारों ओर।
वे, जो दिन रात नहीं घूम पाते
अपनी
या किसी और की धुरियों पर।
वे,
जो बहुत अतीत के हैं
या किसी अनिश्चित भविष्य के
लेकिन वर्तमान के नहीं हैं;
वे,
जिन्हें चिंघाड़ना आता है,
दहाड़ना आता है,
आता है
रात भर
कुत्तों के साथ विलाप करना
या आती हैं
किसी नई सदी की
मूक भाषाएं
लेकिन बोलना नहीं आता;
वे,
जिन्हें पसन्द नहीं हैं आवरण।
आदिम लोगों की तरह
या आने वाली पीढ़ियों की तरह
जो थूकते हैं
शरीर ढकने की परम्पराओं पर;
वे,
जो सनकी, बीमार, सिरफिरे हैं,
जो नियम ही नहीं समझ पाते
कि उन्हें मानें
या तोड़ सकें;
वे,
जो इतने लाइलाज़ हैं
कि अब तरस भी नहीं आता उन पर,
वे, जो तटस्थ नहीं हैं,
न ही हैं
किसी पक्ष में भी;
वे,
जो अड़ियल, खड़ूस, ज़िद्दी, पागल हैं
और रात रात भर
आसमान को गालियाँ बकते हैं,
वे हम सब
बेवकूफ़, बदतमीज़
या तो पहले के हैं
या कभी बाद के
लेकिन आज के नहीं हैं।
हम बदसूरत
जो गलत वक़्त पर
गलत ज़गह आ धमके हैं,
टाट पर लगे पैबन्द हैं।
हम ढके हुए हैं
आज के सारे सुराख
सिर्फ़ अपने दम पर
लेकिन मनहूस हैं,
इतना चिल्लाते हैं
कि छिपाए नहीं छिपते।
परेशान है ज़माना।
[+/-] |
IIT वाले...भाग-2 |
पिछली पोस्ट को बहुत प्रशंसा मिली तो मुझे भी लगा कि अभी दुनिया में कुछ लोग हैं, जो आई आई टी के बारे में सुनना चाहते हैं। ये जब से इंडिया शाइन कर रहा है, तब से हमारे यहाँ के लोग जागरुक हुए हैं, नहीं तो कुछ साल पहले तक छोटे कस्बों में तो लोगों के लिए I I T और I T I बराबर ही था।
दो साल की हिला देने वाली मेहनत के बाद जब मेरा सेलेक्शन हुआ तो एक दोस्त की माताजी ने बहुत मासूमियत से पूछा – बेटा, इतनी दूर रुड़की में पढ़ने क्यों जा रहा है? यहाँ जयपुर- वैपुर में एडमिशन नहीं मिल रहा था क्या?
मैंने भी बहस नहीं की। कह दिया कि नहीं, मैं कहाँ आपके सुपुत्र जितना होनहार हो सकता हूं?
खैर, अब जब इज्जत मिलती है तो बहुत सारी बातें आसानी से भूल गया हूं। जो मेहनत के बावज़ूद यहाँ नहीं आ पाए होंगे, वे बहुत कुछ नहीं भूले होंगे।
IITians की एक खासियत है- अपने brand name को भुनाते बहुत अच्छे से हैं। जहाँ कहीं भी आर्थिक, सामाजिक या ‘भावात्मक’ लाभ मिल सकते हैं, अपने brand का फायदा उठाने से चूकते नहीं।
जैसे हमारे कैम्पस के आस पास जो रैस्टोरेंट हैं, IITians को खाने में कुछ छूट देते हैं, तो हम कभी कहना नहीं भूलते कि IIT वाला बिल लाना।
जैसे हम ट्रेन में सफ़र कर रहे हों और आसपास कुछ ‘अच्छी’ लड़कियाँ हों तो हम आपस में ऐसी चर्चा जरूर छेड़ देते हैं, जिसमें इस महान संस्थान का नाम बार बार आए। वैसे ज्यादातर लोग सफ़र के दौरान बड़े बड़े अक्षरों में IIT लिखी हुई टी शर्ट हमेशा पहनते हैं। इससे कोई न कोई बेचारा पूछ ही बैठता है कि IIT में हो क्या? और फिर सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, मस्तक ऊँचा हो जाता है, होठों पर humble सी मुस्कुराहट आ जाती है इत्यादि इत्यादि...
ऊपर अच्छी लड़कियों की बात छिड़ी तो सोच रहा हूं कि हज़ारों लड़कों के दिल का दर्द कह ही दूं। हम सब सोचते हैं कि अब IIT में लड़कियों के लिए आरक्षण हो ही जाना चाहिए। बचपन से हिन्दी फ़िल्में देख देख के लगता था कि कॉलेज में ‘खम्भे जैसी खड़ी है’ टाइप गीत गाने का खूब माहौल होगा, लेकिन यहाँ तो सिर्फ़ खम्भों के बीच में बिजली का transmission कैसे होता है, इसी की बातें चलती रहीं। IIT में लड़कियों की घोर कमी है। मैं इस पोस्ट के माध्यम से सरकार तक अपनी यह व्यथा भी पहुँचाना चाहता हूं। यदि कोई पावर वाला व्यक्ति अथवा समाज-सुधारक अथवा नारी उत्थान कार्यकर्त्ता इसे पढ़ने की भूल करे तो इस दिशा में कुछ कदम जरूर उठाए ;)
‘चोखेरबाली’ वाले भी चाहें, तो कुछ मदद कर सकते हैं।
अपनी तो जैसे कटी, सो कटी, आने वाली पीढ़ी को युवावस्था में वानप्रस्थ की feeling ना आए।
खैर, मज़ाक की बात मज़ाक में उड़ा दीजिए। हम सब इस त्रासदी से चाहे कितने भी दुखी हों, किसी भी तरह के आरक्षण के सख्त खिलाफ़ हैं। इस मुद्दे पर इसे ही हमारा अंतिम बयान समझा जाए। हाँ, वह बात अलग है कि पिछले कुछ समय में OBC को आरक्षण दिए जाने के बाद देश भर में जो विरोध हुआ, उसमें IIT वाले सबसे कम सक्रिय रहे। इसका कारण मैं भी नहीं समझ पाया, लेकिन यह दुखद अवश्य था। दुर्भाग्यवश शायद हम उस स्तर पर पहुँच गए हैं, जहाँ हमें घटिया राजनीति, सुस्त प्रशासन और सोई हुई जनता, किसी से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अपने जीवन में यहाँ तक पहुंचने के लिए किए गए संघर्ष और मेहनत ने जाने अनजाने में हममें से अधिकांश को स्वकेन्द्रित और असंवेदनशील बना दिया है।यहाँ का पारदर्शी सिस्टम हमें भारत को सुधारने की नहीं, अमेरिकन ढंग से जीने की प्रेरणा देता है और हम बाहर के भ्रष्ट, अव्यवस्थित भारत में स्वयं को असहज महसूस करने लगते हैं। आश्चर्य नहीं कि ग्रेजुएट होने के बाद आई आई टी वाले अमेरिका की ओर आकर्षित क्यों होते हैं?
यह दुखद है, किंतु सत्य है।