बहुत सर्दी लगती थी तो भी कुछ ओढ़ने का मन नहीं होता था। मन शराबी सा था और मुझे शराब पीना नहीं आता था। सुबह सुबह सूरज उंगली छुड़ाकर छिपने के लिए भागता था और फिर न जाने क्यों, मोड़ से लौट आता था। वह एक सुन्दर लड़की थी जिससे प्रेम करते हुए ठीक ठीक पता भी नहीं लग पाता था कि प्रेम उससे है या उसकी सुन्दरता से? फिर भी रोना आता था। सुन्दर होना अभिशप्त वरदान था। वैसे उसके होठों के ऊपर हल्का हल्का रोयाँ था, जो मुझे लगता था कि नहीं होना चाहिए। वह उबासी लेती थी तो उसका शरीर लय में नहीं रहता था। वह स्लीवलेस नहीं पहनती थी। मैं उसकी बगलें देखना चाहता था। वह बहुत हँसती थी, इसलिए मुझे ऐसा लगता था कि उसकी आत्मा हमेशा उसके हॉस्टल में छूट जाती होगी। मुझे अपने परफ़ेक्शनिस्ट होने की बदगुमानी से बेहद चिढ़ थी।
हम दोनों के बीच में मेरा आत्मसम्मान था जो चिथड़े चिथड़े कर दिया गया था। और मैंने तय किया कि सुन्दर लड़कियों से प्यार नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा तय करते हुए गूगल पर खोजकर देखे गए कैटरीना कैफ़ और प्रियंका चोपड़ा के दर्जनों चित्र भी मेरे दिमाग में घूमते रहे।
स्त्री मेरे मन में शरीर होती जाती थी। मैं घंटों फ़ोन लेकर बैठा रहता था और एक ही बात सोचता था...किसे फ़ोन करूं कि कुछ आराम आए? ए से शुरु करके एक एक नम्बर और नाम देखता हुआ बार बार ज़ैड तक पहुँच जाता था। मेरे मोबाइल में दो सौ छियानवे नम्बर थे और एक भी ऐसा नहीं था जिससे बात करके उस बेचैनी के चले जाने की उम्मीद हो। क्या मैं किसी और दुनिया में किसी और का फ़ोन लेकर बैठा रहता था? क्या किसी भी दुनिया को अपने किसी अवांछित व्यक्ति से भी इतना दूर हो जाने का, इतना क्रूर हो जाने का हक़ था?
यह बहुत भयावह था कि आप दिन भर रोएँ और शाम को सड़क पर टहलने निकलें तो कोई भी न पूछे कि क्या हुआ? कुत्ता भी नहीं। कूड़ादान भी नहीं।
यह इस बात को चार बार लिखे जाने जितना त्रासद था।
यह याद आता था कि शायद किसी ने कभी कहा तो था कि परेशानी हो या न भी हो, किसी भी वक़्त मुझे फ़ोन कर लेना। लेकिन किसने कहा था, यह याद नहीं आता था। मैं दीवारों पर सिर पटकता था। रात रोज़ हो जाती थी। मेरा एकांत मुझे महानता का अहसास करवाता था। मेरा एकांत मुझे मारे जाता था। लोग अलार्म भरते थे और सो जाते थे।
मैं एक सैकेंड हैंड बंदूक खरीदना चाहता था और ठीक ठीक दाम में चार छ: गोलियां। मैं उसकी आँखों के बिल्कुल ऊपर, माथे के बीच में बनते गोल गोल भँवर में गोली मारना चाहता था। मैं उससे इतना प्यार करता था कि उसे अपने सामने मरते हुए देखे बिना जी नहीं सकता था। प्रेम मुझे हिंसक बनाता था।
कुत्ते भौंकते थे। ‘ओए लकी लकी ओए’ में एक गाना बजता था...
जुगनी चढ़दी एसी कार
जुगनी रहंदी शीशे पार
जुगनी मोहमोहणी नार
ओदी कोठी सैक्टर चार।
जुगनी हँसदी वे हँसदी...
...और जुगनी ठठाकर हँसती थी। हॉल में ठहाके गूँजते थे और मुझे लगता था कि पूरा देश रोता है।
[+/-] |
हँसती हुई जुगनी |
[+/-] |
तुम्हारा प्रायश्चित |
छत पर धूप को सेकना
तुम्हें झुठलाने जैसा है,
तुम्हें सच मानना है आत्महत्या जैसा।
तुम्हारा आँखें बन्द कर लेना
डूब जाने जैसा नहीं,
रात जैसा है,
तुम्हारा देर तक अलविदा के पत्थर पर खड़े रहना
तुम जैसा नहीं,
सड़क या दुकान या शहर जैसा है।
जिस तरह फूटते हैं गुब्बारे,
शाम होती है,
पेड़ देते हैं फल,
किताबें खो जाती हैं,
रेडियो बजता है,
दरवाजों पर ताले लगे होते हैं,
फ़ोन मिलते हैं स्विच्ड ऑफ़,
साँस नहीं आती,
सोमवार आते हैं,
इसी तरह किसी दिन
घर से निकलकर चलता चला जाऊँगा मैं
और कभी नहीं लौटूंगा।
मेरा इंतज़ार किया जाए।
यह तुम्हारा प्रायश्चित हो।
[+/-] |
तीसरा समय जान ले लेगा हमारी |
तुम्हारी आत्मा में छेद हो गए हैं
और तुम बोलती हो तो
तुम्हारा बोलना डूब जाता है
(और यह प्रशंसा नहीं है)।
तुम्हारी आँखों में तमंचे हैं
जैसे तुम्हें झुटपुटे में लूटना है किसी को
आम के घने पेड़ों वाली सड़क पर।
तुम लूटती हो तो
कोई हल्का सा गीत गुनगुनाने का मन करता है।
हल्के गीतों ने बचाकर रखा है
बार बार किया जा सकने वाला प्रेम
और गुनगुनाना।
आओ कम्बल ओढ़कर
कम-ज़-कम एक तस्वीर ही खिंचवा लें
कि अपनी (माने अपनी अपनी) संतानों को गर्व से बता पाएँ हम
अपने अँधेरों को साझा करना,
एक खराब कविता लिखना
और रात के खाने का बंक मारकर
प्यार करना।
तुम नहीं हो तो
मेरे कलेजे में है एक डर
एक फ़ुटपाथी शौर्य
और एक सुस्ताती उदासीनता।
मैं बुरा नहीं हूं,
लेकिन मेरी भूख में मेरा पूरा संसार है
जिसे गोरी लड़कियों और मैकडोनाल्डीय बर्गरों ने बरगला दिया है।
डर को टॉफ़ी देकर बहकाया नहीं जा सकता,
डर चाहता है चाँद के चाँदी बन जाने की सुरक्षा,
डर निराकार है,
डर शाश्वत है,
डर ही है ईश्वर,
आसमान में है लम्बी आग,
तुम खो गई हो,
प्रेम के बिना जीना होता जा रहा है आसान,
उम्मीद पर टिकी है दुनिया
और यह दुनिया का सबसे ज़्यादा नाउम्मीदी भरा ख़याल है।
प्रेम के बिना जीना होता जा रहा है आसान!
कैसे भला?
सब बातें राज़ की हैं
इसलिए सब राज़दार ख़त्म किए जा चुके हैं।
धुंध में तसले में बैठकर नहाता है सूरज,
तुम्हें भीगे बालों में
देर तक छूटती रहती है कँपकँपी।
एक बात है
जिसे पूरी करने के लिए
फ़ोन काट देना बहुत ज़रूरी है,
एक बात है
जिसमें बसती है दुनिया की सारी ऑक्सीज़न।
सुनो,
यह आदमकद शीशों,
ऊबे हुए लोगों,
आलू के परांठों,
तिलिस्मी दरवाज़ों
और टीवी की दुनिया है।
यह एक दूसरा ही समय है
जब हमारी माँएं
हमारी प्रेमिकाओं की तरह हमें भूल गई हैं।
तीसरा समय जान ले लेगा हमारी।
[+/-] |
सात नीम चौदह झूले |
- तुम्हारे हिस्से कुछ भी नहीं आया...न पहली रात न आखिरी।
- और ये जो इतने सारे दिन सिर्फ़ मेरे हिस्से आए?
- एक पहाड़ पर एक महल था, उसमें एक...
- मुझे कहानी नहीं सुननी। कहानियाँ ख़त्म होने पर ऐसा लगता है जैसे किसी ने ठग लिया हो मुझे।
- क्या तुम्हें भी लगता है कि आसमान में घूमती हुई चील बहुत उदास होती होगी?
- मेरा सब उदास चीजों से बहुत सारा प्यार करने का मन करता है।
- मुझे ऐसी बेवकूफियाँ पसन्द नहीं...
- कैसी? उदासी जैसी या प्यार जैसी? या चील होने जैसी?
- उदास होकर प्यार करना तो प्यार करके भी उदास रहना है ना?
- नहीं, दोनों अलग अलग हैं।
- फिर तुम साथ साथ क्यों करते हो?
- नहीं, मुझे प्यार नहीं होता, बस उदासी होती है और बहुत सारी फ़िक्र होती है। स्टेशन पर भीख माँगते लोगों की फ़िक्र होती है, एड्स से मर रहे लोगों की भी, दंगों में मर रहे लोगों की, मार रहे लोगों की भी, मुझे डेढ़ हज़ार रुपए में आठ घंटे पढ़ाने वाले प्राइवेट स्कूलों के मास्टरों की फ़िक्र होती है, उनके आत्मसम्मान की, उनके बच्चों की फ़िक्र होती है, मुझे बेचारे अब्दुल कलाम की फ़िक्र होती है, कभी कभी विश्वनाथन आनन्द की भी...मुझे न जाने क्यों लगता है कि वह अकेले में अक्सर रोता होगा, मुझे मनोज बाजपेयी की फ़िक्र होती है, उसकी पत्नी नेहा की भी, नेहा के रूठे हुए पुराने मुस्लिम नाम की भी, मुझे कुदालों, कुल्हाड़ियों, कुम्हारों, कठफोड़वों और किताबों की भी बहुत फ़िक्र होती है, कुम्हारों की सबसे ज़्यादा। मैंने बरसों से चाक नहीं देखा...या शायद कभी देखा ही नहीं मगर मुझे फ़िक्र होती है, इतनी कि साँस नहीं ले पाता। मुझे ‘गुमशुदा की तलाश’ में दिखाए जाने वाले बच्चों की फ़िक्र होती है, सर्कस में हंटरों से पिटते हाथियों की भी...
- फिर तो तुम्हें मेनका गाँधी की भी फ़िक्र होती होगी?
- नहीं, रत्ती भर भी नहीं।
- ऐसा करते हैं कि एक फ़िक्र की रात निश्चित कर लेते हैं। मैं रात भर तारे गिनूंगी और तुम फ़िक्र करना।
- लेकिन उस रात बादल होंगे और तारे नहीं होंगे।
- तो मैं बादल गिन लूंगी, जैसे तुम मेरे बाल गिनते हो।
- नहीं पगली, वैसे तो तारे गिने जाते हैं।
- छोड़ो।
- जब मैं बच्चा था तो एक स्कूल था, जिसमें रुई की किताबें होती थीं और मोम के बेंच। वहाँ सात नीम के पेड़ थे जिन पर चौदह झूले टँगे थे...
- यानी हर पेड़ पर दो दो?
- नहीं, वहाँ किसी को गणित नहीं आती थी।
- तो ये कैसे मालूम पड़ा कि सात पेड़ थे और चौदह झूले?
- यह बात स्कूल के दरवाजे पर लगे बोर्ड पर लिखी थी। ‘आधुनिक सुविधाओं युक्त सहशिक्षा विद्यालय’ के नीचे।
- क्या ऐसे लिखा था कि चौदह झूलों युक्त सात नीम?
- नहीं, अकेला सात बटे चौदह लिखा था किनारे पर।
- इसके तो हज़ारों अर्थ हो सकते हैं।
- क्या क्या?
- कि उसका पता सात बटे चौदह हो या वह स्कूल उन्नीस सौ चौदह की जुलाई में शुरु हुआ हो या वहाँ सात कक्षाएँ हों और हर एक में चौदह बच्चे हों या चौदह जुलाई पेंटर का जन्मदिन हो या उसकी प्रेमिका का या हो सकता है कि वह इकहत्तर सौ चौदह हो, जो पेंटर का पारिश्रमिक हो और स्कूल वालों ने न चुकाया हो और बाद में किसी दिन पेंटर ने रात को गुस्से में बोर्ड पर वह लिख दिया हो। तुम्हें सही याद है कि वह बटे था, एक नहीं?
- मुझे कभी बटे याद आता है और कभी एक! लेकिन यदि उसने गुस्से में लिखा होता तो उसे पूरा ही लिख देना चाहिए था कि रमेश पेंटर के इकहत्तर सौ चौदह रुपए स्कूल वालों पर बकाया हैं।
- और नीचे साइन कर देने चाहिए थे।
- साइन तो थे..
- सिर्फ़ साइन नहीं। वह तो हर पेंटर करता है, अपने काम पर अपना नाम लिखने के लिए।
- हो सकता है कि उसके पास इतना लिखने लायक रंग ही बचा हो।
- लेकिन पेड़ हों या पैसे, गिने किसने होंगे? हैडमास्टर ने या पेंटर ने?
- पैसे तो थे ही नहीं, वे तो बकाया थे। उन्हें कोई कैसे गिन सकता था?
- फिर यह कैसे पता चला होगा कि स्कूल वाले रमेश को इतने रुपए देंगे?
- अब रमेश कौन आ गया बीच में?
- तुम्हीं ने तो बताया कि पेंटर का नाम रमेश था। तुम सब कुछ भूल जाते हो।
- मुझे याद नहीं कि मैंने उसका नाम भी लिया था। पेंटर सुनते ही तुम्हारे दिमाग में कोई रमेश पेंटर आया होगा और तुम्हें फिर यही याद रहा होगा कि मैंने उसका नाम बताया है।
- चलो छोड़ो यह सब। झूलों से आगे की बात बताओ।
- बारहवें झूले की तख्ती पर मैंने अपना नाम लिख दिया था।
- फिर?
- उस स्कूल की छत पर पहला आसमान था। एक मैडम थी जो दुनिया की पहली मैडम थी। मैं उससे बहुत प्यार करता था, वह मुझे रोज़ मारती थी।
- मुझे नहीं सुनना।
वह रूठ गई थी। मैं उसे मनाने के लिए दाल-बाटी-चूरमा लाया जो उसने पिछले महीने मुझसे मँगवाया था। जो लोग खाने की चीजों से मान जाते हैं, उन्हें मनाना आसान है। बाकी लोगों को तो मनाया ही नहीं जा सकता। बाकी लोगों का रूठ जाना उनके मर जाने जैसा होता है।
खाते खाते ही वह बोली- एक और लड़की थी ना?
- कौनसी?
- जो रोते रोते सो जाती थी। जिसका नाम हर दिन बदल जाता था।
- जिसके घर में एक बिल्ली थी जो बिना बताए कहीं चली गई थी?
- हाँ, वही।
- अब उसकी कोई ख़बर नहीं है। मैं उसे ढाई साल पुराने नाम से ढूंढ़ता हूं, लेकिन उसका नाम तो रोज बदल जाता है।
- जो कभी ऐसा हो कि तुम फ़िल्म देखने जाओ और वह अचानक तुम्हें मिल जाए तो?
- या ट्रेन में मेरे सामने वाली बर्थ पर...
- या न्यूज़ चैनल वाले जब भीड़ इकट्ठी करके कुछ पूछते हैं, उनमें कभी दिख जाए...
- हाँ, और तब मैं पीछे का सारा दृश्य याद कर लूंगा। फिर उस हलवाई की दुकान पर जाकर पूछूंगा कि वह लड़की, जो बार बार बालों में हाथ फिराते हुए बोल रही थी, कहाँ मिलेगी?
- हलवाई कौन?
- मैंने मान लिया था कि टीवी में भीड़ के पीछे एक दुकान दिख रही होगी, बीकानेर मिष्ठान्न भंडार।
- न्यूज़ चैनल वाले मिठाई की दुकान पर क्यूं जाएँगे भला?
- शायद वहाँ आग लग गई हो...
- आग लग गई होगी तो तुम दुकान कैसे ढूंढ़ोगे...और हलवाई भी?
- फिर वह नहीं बता पाएगा क्योंकि वह बूढ़ा होगा। उसका बेटा उसे रोज देखता होगा, शायद उसके पीछे उसके घर तक भी जाता हो। वह बता देगा।
- तुम्हें उसके बेटे पर गुस्सा आएगा?
- हाँ, थोड़ा सा, लेकिन मैं कुछ कहूंगा नहीं।
- मैं जानती थी कि नहीं कहोगे।
- तुम कैसे जानती थी?
- उस दिन मन्दिर के सामने वो काली टी शर्ट वाला लड़का मुझे घूर घूर कर देख रहा था और तुम चुपचाप निकल आए थे।
- तुम्हें देखना कोई अपराध थोड़े ही है। तुम कुतुब मीनार थोड़े ही हो।
- उसे देखना अपराध है?
- हाँ, वहाँ पुलिसवाले रहते हैं जो बताते हैं कि क्या देखना है और क्या नहीं।
- वह बार बार बालों में हाथ फेरती थी?
- कौन?
- जो मिठाई की दुकान के बाहर खो गई थी..
- तुम्हें कैसे पता? तुमने देखा है उसे?
- उसे सबने देखा है और सब भूल गए हैं।
- वह चूड़ीदार पहनती थी, वह गिद्धा करती थी, वह सुबह सुबह ब्रश करने से पहले हँसती थी, उसे नीला रंग पसन्द था, काले धब्बों वाली तितलियाँ और हरे सेब। वह धुंधली नींद सोती थी और सफेद सपने देखती थी। उसने मेरे लिए खीर बनाकर रखी थी, जिसे वह मुझे खिला नहीं पाई।
- और फिर खीर में कीड़े पड़ गए होंगे? सारा दूध बेकार गया। आधा लीटर तो होगा ही?
- उनके घर में भैंस थी।
- फिर उसे धुंधला सोने, सपने देखने और गिद्धा पाने का टाइम कहाँ से मिलता था? जिनके घर में पशु होते हैं, वहाँ गोबर उठाना पड़ता है, दूध दुहना पड़ता है, सिर पर चारा उठाकर लाना पड़ता है। तुम ही सोचो, गोबर उठाते उठाते प्यार करना किसे याद रहता है? और याद भी रहे तो दोनों काम साथ साथ करना असम्भव सा नहीं लगता?
- वह कहती थी कि उसे याद रहता था।
- जरूर झूठ बोलती होगी। उसका जन्मदिन अक्टूबर में तो नहीं आता था?
- आता था नहीं आता है...
- अक्टूबर में जन्मी लड़कियाँ झूठी होती हैं।
- मुझे उसका जन्मदिन पक्का याद नहीं।
- तुम उसे बचाना चाह रहे हो, तुम भी झूठे हो।
- हाँ।
- तभी तुम्हारे हिस्से कुछ भी नहीं आया...न पहली रात न आखिरी...
- और ये जो इतने सारे दिन आए?
[+/-] |
हेमंत करकरे नाम का एक आदमी मर गया था |
एक आदमी दिखाता था अपना हाथ बार बार
कैमरे के सामने
जिसमें से चूता था टप टप खून,
एक आदमी ने अपने कमरे की खिड़की के शीशे पर
लिखा था, ‘हमें बचा लो’
कोलगेट के टूथपेस्ट या जिलेट की शेविंग क्रीम से।
खिड़की पर ज़ूम होता था बार बार कैमरा।
जाने कौनसा मॉडल था,
बहुत बढ़िया था रिज़ोल्यूशन।
दनादन गोलियाँ निकलती थीं
चलती हुई जिप्सी में से,
लोग लेट जाते थे लेटी हुई सड़क पर,
हम सब लिहाफ़ों में लेटकर देखते थे टीवी,
बदलते रहते थे चैनल,
बार बार चाय पीते थे।
समाचार वाली सुन्दर लड़कियाँ बताती थीं
हमें और भी बहुत सारी नई बातें
और जब हम सब कुछ भूल जाना चाहते थे
उनकी छातियों पर नज़रें गड़ाकर
तब सारी उत्तेजनाएँ जैसे किसी खानदानी दवाखाने की
शिलाजीत की गोलियों में छिप जाती थी।
उचककर छत से चिपककर
फूट फूट कर रोने का होता था मन।
नहीं आता था रोना भी।
हेमंत करकरे नाम का एक आदमी
मर गया था
और नहीं जीने देता था हमें।
ऐसे ही कई और साधारण नामों वाले आदमी
मर गए थे
जो नहीं थे सचिन तेंदुलकर, आमिर ख़ान
या अभिनव बिन्द्रा,
नहीं लिखी जा सकती थी उनकी जीवनियाँ
बहुत सारे व्यावसायिक कारणों से।
वह रात को देर से पहुँचने वाला था घर,
फ़्रिज में रखा था शाही पनीर
और गुँधा हुआ आटा,
एक किताब आधी छूटी हुई थी बहुत दिन से,
माँ की आती रही थीं शाम को मिस्ड कॉल,
उसे भी करना था घर पहुँचकर फ़ोन,
ढूंढ़ना था कोल्हापुर में
कॉलेज के दिनों की एक लड़की को,
बस एक बार देखना था उसका अधेड़ चेहरा,
उसके बच्चे,
अपने बच्चों के साथ देखनी थी
पच्चीस दिसम्बर को गजनी।
गजनी माने आमिर ख़ान।
एक दिशा थी
जहाँ से आने वाले सब लोग
भ्रमित हो जाते थे,
एक प्यारा सा चमकीला शहर था
जिसका दुखता था पोर पोर,
जबकि वह एक से अधिक पिताओं का दौर था,
खेलते-सोते-पढ़ते-तुनकते-ठुनकते पचासों बच्चे
रोज हो जाते थे अनाथ,
हमें आता था क्रोध
और हम सो जाते थे।
कमज़ोर याददाश्त और महेन्द्र सिंह धोनी के इस समय में
यह हर सुबह गला फाड़कर उठती हुई हूक,
हेमंत करकरे, अशोक काम्टे, विजय सालस्कर
और बहुत सारे साधारण लोगों को बचाकर रख लेने की
एक नितांत स्वार्थी कोशिश है,
इसे कविता न कहा जाए।
[+/-] |
एक आदमी था, एक थी औरत |
हरी धूप में हरी बातें,
पीली धूप में पीली बातें,
तुम्हारा अपना सफेद रंग
कोई तुमसे बिना पूछे उठा ले गया है पगली।
मेरा नीला उदास हो जाना
कोई दुर्घटना नहीं,
ऐसे में मैं सुना सकता हूं तुम्हें
हँसी की सबसे प्यारी कहानियाँ।
हँ सो कि ख़ त्म हो र हा है नी ल
अँ धे रे को ज ग ह दे ने के लि ए,
क म जो र बा लों की त र ह टू ट ते जा ते हैं श ब्द।
तुम्हें इतना अच्छा लगता है ना हँसना,
अब हँसो उसी तरह
जैसे इंडिया गेट घूमते हुए हँसती हो,
नहीं तो मारी जाओगी,
सच कहता हूं।
आधी रात में भाट गाते हैं विरुदावली।
माँ ने सिखाया है कि
कायर लोग करते हैं प्रेम,
कायर लोग मोमबत्तियों पर हाथ रख लेते हैं शपथ,
कायर बच्चे कहानियाँ पढ़ते हैं,
कायर पुरुष गढ़ते हैं कविताएँ,
कायर स्त्रियाँ घर से भाग जाती हैं।
कायरों की पूरी जमात से
ख़ौफ़ज़दा हैं साहसी लोग
इसलिए दफ़्तर जाने वाले वीरों
और बच्चे पैदा करने वाली वीरांगनाओं के लिए
भाट गाते हैं विरुदावली।
उत्साह जवानी में होने वाली एक लाइलाज़ बीमारी है
जिसने बिना आवाज़ किए लील ली हैं
संसार की सबसे काबिल नस्लें।
सबसे बुद्धिमान लोग हो गए हैं पागल,
सबसे सच्ची किताबें प्रतिबंधित कर दी गई हैं,
संसार के सबसे उत्साहित युवा
कर बैठे हैं प्रेम
बर्फ़ीली चोटियों और रहस्यमयी अँधेरी कन्दराओं से।
इतराओ मत,
मेरा मतलब तुमसे नहीं है...
एक आदमी था,
एक थी औरत,
एक आकाश था,
थोड़ी सी खुशी और
कुछ अमर तिलचट्टे थे,
ढेर सारे एकांत में थीं मुट्ठी भर वर्जनाएँ,
आदमी की हथेली में थी औरत की रीढ़।
कुछ ज़रूरी भेजी गई-गैरज़रूरी पाई गई चिट्ठियों
और खो गई तस्वीरों के अलावा
एक और बात थी
जो किसी को याद नहीं रही।
दुनिया की सबसे उदास बातें
किसी भी भाषा में नहीं कही जा सकती।
कविता लिखना कुछ कुछ
बिन माँ के बच्चों के रोने जैसा है।
[+/-] |
नींद, बेरुखी, फूल |
जैसे पढ़ते पढ़ते लोग बन जाते हैं किताब,
जैसे नाचते नाचते लोग बन जाते हैं ओडिसी,
जैसे खरीदते खरीदते बाज़ार,
जैसे ठोकते पीटते औजार,
जैसे टीवी देखते देखते चित्रहार,
जैसे ड्राइव करते करते लोग बन जाते हैं कार,
तुम जमकर बन गई हो वनीला आईसक्रीम,
नींद, बेरुखी, फूल
या जैसे उदास सा बिहार।
[+/-] |
बस एक रात और हाय रब्बा! |
1
छत को गिर जाना है किसी दिन
अचानक टूटकर मेरे ऊपर
और जब रात भर गोल गोल घूमती है धरती
मेले वाले बड़े झूले की तरह
(मैं नहीं मानता गोल गोल घूमना
मगर कोई इसे सिद्ध करने के लिए
फाँसी चढ़ गया था शायद कभी।
एक बलिदान पर सौ झूठ हों सच।
आमीन!)
तो उस अचानकता को बचाए रखने के लिए
यह छत टस से मस नहीं होती।
तुम फ़ोन पर मुझसे कहती हो – अपना ख़याल रखना,
मुझे याद आता रहता है गार्नियर का विज्ञापन।
बहुत सारी तुम भी।
जो टीवी देख सकते हों,
कम से कम उन्हें तो नहीं करना चाहिए था
किसी से प्रेम।
२
आज रात बर्फ़ गिरेगी दिल्ली में,
चाँद जम जाएगा
या कम्बल ओढ़कर करता रहेगा प्यार।
काश कि बर्फ़ न गिरे,
इतनी गर्मी हो कि चाँद आसमान के बिस्तर से उठकर
आ खड़ा हो छत पर,
मैं दूर खेतों में खड़ा झलता रहूं साँसों का पंखा।
चाँद कुँवारा सोए
और कुँवारा जग जाए
बस एक रात और
हाय रब्बा!
[+/-] |
बीच के लोग रहेंगे देर तक ज़िन्दा |
समय निश्चित रूप से
बौराए हुए आत्मघाती शोर का है
लेकिन सन्नाटा भी लगातार चुन चुन कर
निगल रहा है अपने शिकार।
बीच के लोग रहेंगे
देर तक ज़िन्दा।
रसोई में सजे भगोने में
घूम रही हैं दो मकड़ियाँ,
या शायद एक।
निश्चिंत होकर सो जाना
गाँव से आए ताऊजी के
देर रात दरवाजा पीटने पर
दुबारा आटा गूंथती माँ के मुस्कुराने जितना
अवसाद भरा झूठ है।
न खुलने के सामाजिक अपराध पर
देर रात, सुबह तड़के या भरी दोपहर में
पिटते रहना
दुनिया भर के बन्द दरवाजों की नियति है।
इतना आहिस्ता रोती हो तुम
कि मुझे आती है हँसी,
रोना भी।
इतने गहरे तक पैठा हुआ है
कम्बख़्त मेरी पैदाइश का शहर,
उसके लोग,
उसकी लड़कियाँ
कि उनसे नफ़रत करना चाहूं
तो मर जाने का मन करता है,
प्यार करता रहूं
तो पागल हो जाऊँ।
माँ की एक सहेली थी कक्षा आठ में
जिसका आखिरी इम्तिहान से ठीक पहले ब्याह हो गया था,
जिससे मिलने माँ गई थी
भादो की किसी दूज को शायद
मामा के साथ ताँगे में बैठकर
और लौटते हुए रोती रही थी।
मैंने नहीं देखी माँ की कोई सहेली कभी,
मुझे क्यूं याद आती है वो
सीधी आँख के नीचे के तिल वाले
अपने पूरे चेहरे समेत?
क्यों होता है
मीना कुमारी की तरह
तकिए में चेहरा भींच कर रोते रहने का मन?
कंधे पर रेडियो रखे
एक सफेद कुरते वाला बूढ़ा
रात के अँधेरे में दिख जाता है
हड़बड़ाया, तुड़तुड़ाया, नाराज़, परेशान सा
जैसे सरकारी स्कूल का कोई मास्टर
लड़ आया हो अपने हैडमास्टर से
नाक पोंछते बच्चों के सामने चिल्ला चिल्ला कर,
खिंच गई हों उसके पेट की नसें,
कराहता रहा हो शाम भर
या तबादले के लिए मिलने गया हो एम एल ए से
और उसे मिली हों माँ बहन की गाली,
शायद खड़ा सिर झुकाए हाँ हूँ करता रहा हो,
शायद मुड़ने से पहले फिर से नमस्ते भी की हो,
शायद रोया भी हो घर आकर
और उसकी पत्नी ने अपने बच्चों को न बताया हो
या बस खाट पर पड़ा
सुनता रहा हो रात तक
प्रादेशिक समाचार,
बच्चे खेलते रहे हों क्रिकेट।
नकली घरघराती आवाज़ में
बहुत हँसाया करते थे मेरे पिता
जब कहते थे
”ऐसे बोलो, जैसे मैं रेडियो की तरह बोलता हूँ।“
आखिर पूछ लो ना मुझसे।
कुछ बात है अनकही
जो इतनी भारी है कि
रात भर नहीं बदलती करवट,
चूं भी नहीं करता दुख
कि नाखूनों में फँसा कर उखाड़ लिया जाए।
मेरे नाम से कोई तो रखता होगा व्रत,
नहीं तो दिल्ली में इतने दिन
कैसे ज़िन्दा रह सकता है कोई ख़ामोश नास्तिक आदमी?
[+/-] |
प्यार, पूर्वाग्रह और लड़कियाँ |
शराब पीकर झूमती हुई लड़की
बेहद मासूमियत से अंग्रेज़ी में कहती है मुझसे
कि मुझसे प्यार करती है वह।
मैं शहर से पूछता हूं कि
क्या किया जा सकता है
तुम्हारी लड़कियों पर भरोसा?
शहर में शोर है,
चुप चुप सा है शहर।
मुझे लगता रहा है कि
इस कमज़ोर सी बेमुरव्वत ज़िन्दगी में
लड़कियों के सहारे पर बड़ी उम्मीदों के पुल बाँधना
अपने आप से किया गया
एक शरारती किस्म का मज़ाक है।
लड़कियाँ होती हैं इतनी अबूझ,
इतनी अनिश्चित
कि अगले ही पल बौखला पड़ने से पहले
वे रुमाल से पोंछ रही होती हैं लिपस्टिक
या गुनगुना रही होती हैं
कोई छद्म रोमांटिक गाना।
लड़कियों को इतनी प्यारी होती है खुशी
कि उसके साथ नहीं जी पाता
प्यार का सनातन दुख।
उन्हें पसंद होते हैं
मज़ाकिया लड़के
मसलन अक्षय कुमार
या वे शायद प्यार कर सकती हैं
डेरीमिल्क से भी
बशर्तें वह हँस सकती हो।
प्यार एक बहुत गंभीर मसला है
और सच में उसके बारे में बात करने पर
ऊबने लगती हैं अधिकांश लड़कियाँ।
उन्हें भले लगते हैं
जादुई सपने,
इन्द्रधनुषी रोमांच,
गुदगुदे बच्चे,
टेडी बियर,
चॉकलेट
और लाल गुलाब।
कभी कभी कुछ और चीजें भी।
आसमान उदास है,
शहर को नहीं है फ़ुर्सत,
शराब पीकर झूमती हुई लड़की
जा चुकी है अकेली अपने घर
और हैं बहुत से पूर्वाग्रह,
लेकिन फिर भी
मेरा जोरों से मन है कि प्यार किया जाए।
मैं सड़क के उस पार बैठी
एक अनजान मासूम सी लड़की से पूछता हूं
कि चलोगी फ़िल्म देखने?
प्यार एक बहुत गंभीर मसला है।
इंटरवल में एक दूसरे के हाथों से
पॉपकॉर्न खाते हुए
हम बात करते रहते हैं
करण जौहर के कालजयी सिनेमा की।
[+/-] |
हम दोनों अपनी अपनी माँ से इतने नाराज़ थे कि आत्महत्या कर सकते थे |
बावरी सी रात थी, लेकिन इतनी भी बावरी नहीं कि अपने दूध पीते बच्चों को सड़क पर गिराकर अपने कपड़े फाड़कर चिल्लाती हुई भागने लगे। बस इतनी बावरी थी कि अपने आँचल का छोर पकड़कर लटके दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरती हुई कभी रोने लगती थी और कभी हँसने लगती थी। रात को जाने क्या दुख था, क्या खुशी थी!
हमने तय किया था कि रोएंगे नहीं। हम दोनों अपनी अपनी माँ से इतने नाराज़ थे कि आत्महत्या कर सकते थे। उसने अपनी माँ को किसी से प्यार करते देखा था और मैंने अपनी माँ को किसी से प्यार करते नहीं देखा था। माँ से न बोलने की कसम खाने के बाद ज़िन्दा रहना इतना मुश्किल था कि वह मुझ पर दया कर मेरी साँस लेती थी और मैं उस पर प्यार कर उसकी साँस लेता था। जब यह भी कठिन हो गया तो कुछ समय बाद हम दोनों रात को माँ कहने लगे थे। पहले वाली माँओं के गर्भ से जन्म लेते हुए हमने अपने आप को नहीं देखा था, लेकिन हम दोनों ने अपनी आँखों से देखा था, जब रात ने हमें जन्म दिया।
जब हमारी बावरी माँ हँसती रोती थी और हम उसका पल्लू पकड़कर ठगे से खड़े रहते थे, तब हमने निश्चय किया था कि माँ के सामने रोएंगे नहीं। उसने निश्चय किया था कि वह बोलेगी भी नहीं। वह अपनी अनामिका मेरी मध्यमा से छुआ देती थी तो मैं समझ जाता था कि वह उदास है। वह खिड़कियों के परदे बदलने लगती थी या किसी रात जल्दी सोने चली जाती थी या किसी दिन अख़बार पढ़ने लगती थी तो मैं समझ जाता था कि वह उदास है। लेकिन तब भी हमने कभी वह निश्चय नहीं तोड़ा। हम रात में कभी नहीं रोए। मैं उसके दाएँ पैर के अंगूठे का नाखून चबाते हुए सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहता और वह अपनी आँखों पर सिर दर्द के बहाने वाली चादर लपेटकर सोने का अभिनय करती रहती। माँ अपने चाँद को लेकर जब चली जाती थी, उसके बाद मैं बाथरूम में जाकर देर तक रोया करता था। फव्वारे के नीचे खड़े होकर रोने पर कोई रोने की वज़ह भी नहीं पूछता था। और वह शायद अपने भीतर जाकर रोती होगी। मैंने उसे उसके बाद रोते हुए नहीं देखा।
उसका बचपन पहाड़ों पर बीता था। जब वह चार साल की थी तो एक देवदार पर उगी हुई मासूमियत तोड़कर चुरा लाई थी। मासूमियत उदासी के साथ मिलकर बहुत ख़ूबसूरत हो जाती थी। मैं जब चार साल का था तो पेड़ों के नीचे गिरी हुई निंबौरियाँ और बेर ढूंढ़ ढूंढ़कर खाया करता था। माँ देख लेती थी तो बहुत मारती थी। किताबों में लिखा होता था कि बच्चों को मारने के बाद माँएं खुद भी बहुत रोती हैं। पिटने के बाद की बचपन की रातों में मैं यही सोचकर अपने आप को सांत्वना दिया करता था कि मेरी माँ भी किसी कोने में जाकर रोती होगी। उसने अपनी माँ के बारे में कभी कुछ नहीं बताया, सिवा इसके कि उसने अपनी माँ को किसी से प्यार करते हुए देखा था।
फिर एक शाम, जब सड़क पर बहुत ट्रैफिक था और लोग एक दूसरे की छाती पर पैर धरकर आगे बढ़ जाना चाहते थे, जब टी वी पर सुपरहिट मुकाबला नहीं आ रहा था और दस साल पुराने प्रोग्राम को याद कर एम टी वी देख रहा मेरा पड़ोसी उदास था, जब नीचे की मंजिल पर अपने दफ़्तरी पति से उकताई सरदारनी पड़ोस के बिल्लू को अपने घर का गीज़र ठीक करवाने ले गई थी, जब सामने परचून की दुकान के बाहर पड़े बेंच पर पैर मोड़कर लेटा एक नौजवान लड़का अपनी बेवफ़ा प्रेमिका को मार डालना चाह रहा था, जब हमारे घर की बालकनी वाले रोशनदान में एक सफेद कबूतर आकर बैठ गया था और फिर उड़ गया था, तब वह चिल्ला चिल्लाकर रोने लगी थी और रात के गहराने तक रोती रही थी। फिर वह खाली हाथ, बिना ताला लगाए घर से निकल गई थी और जब मैं काम से लौटा था तो मुझे उसका कोई संदेश नहीं मिला था। फिर मैं रात भर चुप उसके खाली पलंग के सिरहाने बैठा रहा था। वह फिर कभी नहीं लौटी और हम दोनों को अपना निश्चय तोड़ना पड़ा था। डेढ़-दो बजे उसका फ़ोन आया था और उसने नहीं कहा था, लेकिन मैं समझ गया था कि अब हम दोनों अनाथों को अपनी अपनी साँसें अपने आप लेनी पड़ेंगी। कुछ था, जो बेवज़ह पिघलकर ख़त्म हो गया था...आधा अधूरा सा।
[+/-] |
कितना बोलती हो सुनन्दा! |
1
कितना बोलती हो सुनन्दा!
फुदक रही हो सुबह से,
तुम्हारे पैरों में बँधी हैं गली के लड़कों की सीटियाँ
चाची के घर तक जाती हो तो
लड़ने लगती हैं सीटियाँ,
सब गुत्थमगुत्था,
तुम अनजान,
मुस्कुराकर माँगती हो उड़द की दाल।
कितना बोलती हो सुनन्दा
जैसे नया नया पढ़ना सीखने के दिनों में
बोल बोलकर अख़बार पढ़ती हो,
दिन में तीन वक़्त आता हो अख़बार।
गली में से गुजरते हुए
सब पूछते हैं तुमसे ही पता
शिक्को हलवाई का,
तुम बताती रहती हो
बिजलीघर से बाएँ,
फिर हनुमान मन्दिर,
फिर नाई की दुकान,
सामने शिक्को हलवाई।
खरबूजे के मौसम में
बीकानेरी रसगुल्लों की तरह
हुलसी फिरती हो,
तुम्हारे लहंगे ने बुहार दिया है
सुबह से पूरा घर।
चौके में से चम्मच
चोंच में दबाकर उड़ गया है कौआ,
तुम दीवार पर कुहनी टिकाकर
हँस-हँसकर बता रही हो
कि कौन आने वाला है!
कहाँ से लाती हो
इतनी किलकारियाँ भरते शब्द
कि सब खरीदकर ले आए हैं डिक्शनरी,
बोलती हो तो
तुम्हारे होठों में पड़ते हैं
डिंपलिया गड्ढे,
कितना बोलती हो सुनन्दा
कि मोहल्ले में अफीम बिकनी
बन्द सी हो गई है।
2
चाँद बहुत दूर है,
बसों की भी हड़ताल है,
कोई कब तक पीता रहे
रूखी आशाएँ?
साल भर ही तो बीता है
जब तीज पर
कलाई तक मेंहदी लगे हाथों से
तुम पोंछ दिया करती थी
गाँव भर के माथे की सलवटें।
कहाँ गया वो जादूगर किराएदार
बिना नोटिस के
तुम्हारी आँखें खाली करके,
भड़ भड़ बजते रहते हैं
खाली चौबारे के किवाड़।
बेसुध सी डगमगाती हुई चलती हो
और उस पर भी ठहर जाती हो
फ़िल्मों के पोस्टर देखकर
उदास पानी की तरह।
भला कहाँ करता होगा कोई इतना प्यार
कि बिछुड़ने की सालगिरह पर
सूजी का हलवा बनाते हुए
गर्मजोशी से गुनगुनाता रहे
'मैं तैनू फेर मिलांगी',
ऊपर वाले शेल्फ में
काँच की डिब्बी में रखा रहे
शांत सा पोटेशियम सायनाइड,
जिस पर चिप्पी लगाकर लिखा हो
मीठा सोडा।
श्श्श्श्श....
[+/-] |
जब भी सिगरेट जलती है... |
मेरा मन कर रहा है कि सिगरेट पीना शुरु कर दूं। मुझे याद नहीं आता कि फ़िल्म बनाने, कविता लिखने या रोने के अलावा किसी और काम के लिए अचानक इतनी तीव्र इच्छा जगने लगी हो। बचपन में जब घर में फ़्रिज नहीं था तो गर्मियों की शाम में क्रिकेट खेलकर घर लौटने के बाद बर्फ सा जमा हुआ पानी पीने के लिए भी बहुत मन किया करता था। पहली बार प्यार किया था तो उसके होठों को छूने का भी बहुत मन करता था। लेकिन सिगरेट पीने का मन नशे की तरह करता है, जैसे मुझे चखने से पहले से ही नशा होने लगा हो। यह उसी तरह है, जैसे कभी कविता न लिखी हो और कविता लिखने का मन कर रहा हो या कभी फ़िल्म न बनाई हो और तब भी पता हो कि यही वह काम है, जो संतुष्टि देगा।
‘नो स्मोकिंग’ मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में से है और ‘कश लगा’ और ‘जब भी सिगरेट जलती है’ आज ही कई बार सुन चुका हूं। इस पोस्ट का मक़सद गाने के बोल देना या गाना सुनवाना तो नहीं था, लेकिन फिर भी दस्तूर है तो जोड़े देता हूं। लिखा गुलज़ार ने है, संगीत विशाल भारद्वाज का है, गाया सुखविंदर सिंह और दलेर मेंहदी ने है।
और कृपया सिगरेट के नुक्सान मत बताइएगा। मुश्किल ही है कि मैं पियूं। हम कहाँ सब कुछ अपने मन का कर पाते हैं?
कश लगा - सुना नहीं है तो यहाँ से सुन लीजिए
कश लगा, कश लगा, कश लगा, कश लगा....
कश लगा, कश लगा, कश लगा - 2
ज़िन्दगी ऐ कश लगा - 2
हसरतों की राख़ उड़ा
ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....
जलती है तनहाईयाँ तापी हैं रात रात जाग जाग के
उड़ती हैं चिंगारियाँ, गुच्छे हैं लाल लाल गीली आग के
खिलती है जैसे जलते जुगनू हों बेरियों में
आँखें लगी हो जैसे उपलों की ढेरियों में
दो दिन का आग है ये, सारे जहाँ का धुंआँ
दो दिन की ज़िन्दगी में, दोनो जहाँ का धुआँ
ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा, बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....
छोड़ी हुई बस्तियाँ, जाता हूँ बार बार घूम घूमके
मिलते नहीं वो निशान, छोड़े थे दहलीज़ चूम चूमके
जो पायें चढ़ जायेंगे, जंगल की क्यारियाँ हैं
पगडंडियों पे मिलना, दो दिन की यारियाँ हैं
क्या जाने कौन जाये, आरी से बारी आये
हम भी कतार में हैं, जब भी सवारी आये
ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....
ज़िन्दगी ऐ कश लगा
हसरतों की राख उड़ा
ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या पानियों पे बहता जा, बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....
[+/-] |
फुसफुसाना, बोलना या चीख पड़ना बहुत ज़रूरी था |
उन दिनों चुप रहना, ट्रेन में डुगडुगी बजाकर कलाबाजियाँ दिखाने वाले लंगड़े बच्चे की ‘दीदी तेरा देवर दीवाना’ की पैरोडी पर दस मिनट तक हँसने के बाद उसके कटोरा आगे कर देने पर खिड़की के और पास खिसककर ‘गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ चेहरे के आगे लगा लेने से भी बड़ा अपराध था। लेकिन जब जब मेरे बोलने से ज़िन्दग़ी की राहें बदल जाने वाली हों, उन सब खुशनसीब मौकों पर हरियाणा रोडवेज़ की दौड़ती बस में चक्कर खाकर गिरी माँ के पास बैठे चार साल के बच्चे की तरह मेरा हकबकाया, कँपकँपाया, रुआँसा मौन रहना ही बदा था।
मेरी माँ ने बचपन में मुझे इशारों पर चुप रहना सिखाया था। मैं माँ के साथ किसी के घर में सामने रखी डिजाइन वाली प्लेट में रखे बेकरी के बिस्कुटों पर आँखों की जुबान फिरा रहा होता और माँ की सख़्त आँखों की ओर देख लेता तो वहीं बुत बनकर बैठ जाता था और फिर मेरी जुबान न बोलने के लिए खुलती थी, न खाने के लिए। अपनी इस ट्रेनिंग और स्टाइल पर माँ कई सालों तक गर्व करती रही। थोड़ा बड़ा होने पर मैं जानने लगा कि सब माँएं इसी तरह अपने बच्चों को तीन साल की उम्र में चुप रहना सिखा देती हैं और बाद में जब बोलना आज़ाद होने जितना ज़रूरी होता है तो सबकी जुबान को काठ मार जाता है।
उन दिनों अन्दर धूप की धुकधुकी गर्मी रहती थी और बाहर धूप का धुंधला निकट दृष्टिदोष। मेरी आत्मा को स्किज़ोफ्रीनिया हो गया था। एक अजनबी सी लाचारी उस पहचाने से उन्माद पर नंगी लेटी रहती थी। कभी अपने असाधारण होने का घमंड छा जाता था और कभी अतिसाधारण होने की विवशता। एक ऐसी बेचैनी थी, जो आराम माँगती थी। एक ऐसी संतुष्टि थी, जिसमें भूख ही भूख थी।
लिखने से पलायन करती हुए अय्याशी की बू आती थी। सोचता था तो इच्छाओं के लिजलिजे साँप शरीर पर यहाँ वहाँ लोटने लगते थे। फुसफुसाना, बोलना या चीख पड़ना बहुत ज़रूरी था, लेकिन मैं उस वक़्त तक चुप रहा, जिसके बाद बोल देने का अर्थ सड़क पर से बाइक पर गुजरते हुए गर्दन घुमाकर शिवमन्दिर के सामने सिर झुका देने से ज़्यादा कुछ नहीं था।
शायद क्रमश:
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मैं जब भी फ़िल्मों की बात करता था तो वे सब शाहरुख को ही ले आते थे। |
वे सब कहते थे कि वह शहर सपनों को खा जाता है। मैं चाहता था कि वह शहर मुझे भी खा जाए, जिससे मै उसके पेट में लाखों करोड़ों सपनों के साथ जीता रहूं या मरता रहूं। वे सब कहते थे कि वह शहर बहुत चालाक है और चरित्रहीन भी और ‘वे सब’ के पुरुष रात को सोते थे तो अपनी पत्नियों के वक्षों में चेहरे छिपाकर, आँखें मींचकर उस शहर की लड़कियों के स्वामी होने की कल्पना करते थे। ‘वे सब’ की स्त्रियाँ, पुरुषों के काम पर चले जाने के बाद अपना अकेलापन भगाने के लिए उस शहर के लड़कों के रंगीन चित्रों वाली किताबों के पन्ने पलटती रहती थीं।
वे सब चरित्रवान थे और मैं सच में अपना चरित्र किसी नदी में बहा आना चाहता था।
- तुम इन बातों से कुछ और कहना चाहते हो ना?
- तुम्हें कैसे पता चला?
- देखा, मैं समझ गई। अब जानने लगी हूं तुम्हें।
- नहीं, वह कहने का पुराना तरीका है कि प्रतीकों के माध्यम से कहा जाए।
- तो नया तरीका क्या है?
- कि आँखों में आँखें डालकर वही कहा जाए, जो कहना है।
- तो सब कविताएँ बेकार की हैं?
- शायद हाँ...
- शायद तुम्हारा फ़ेवरेट शब्द है?
- नहीं, मेरा फ़ेवरेट शब्द माँ है....या शायद सपना।
- माँ का फ़ेवरेट शब्द क्या है?
- नहीं।
- यह किसी का फ़ेवरेट कैसे हो सकता है?
- शाहरुख ख़ान किसी का फ़ेवरेट कैसे हो सकता है?
- शाहरुख बीच में कहाँ से आ गया?
- मैं जब भी फ़िल्मों की बात करता था तो वे सब शाहरुख को ही ले आते थे।
- मैं जब भी पी एच डी करने की बात करती थी तो वे सब मेघा को ले आते थे।
- मेघा कौन है?
- उसने अपने बुड्ढ़े गाइड से शादी कर ली थी।
- वे सब रास्ते में आकर इस तरह खड़े हो जाते हैं जैसे बस का इंतज़ार कर रहे हों या शाम के खाने के बाद टहलने निकले हों या फ़ोन पर बात करने के बहाने दोस्तों से दूर निकल कर आ खड़े हुए हों। लेकिन वे सब मेरा रास्ता रोकने के लिए खड़े होते हैं।
- उनके हाथों में क्या होता है?
- काश उनके हाथों में तलवारें होतीं। तब उनसे लड़ा तो जा सकता था।
- तुम परेशान हो?
- हाँ, इतना कि रोना चाहता हूँ तो रोया नहीं जाता।
- तुम्हारे पास कुछ वक़्त है?
- नहीं, जब तुमने पूछा, तब था....जब मैं बता रहा हूं, तब नहीं है...
- कहाँ गया?
- मुझे भूख लगी थी, रोटी खरीदने गया है।
- तुम सामने हो तो भी तुम्हारी याद आ रही है...
- तुम सामने हो तो भी बार बार तुम्हें भूल जाता हूं...
- तुम्हें जीना है तो पागल हो जाना पड़ेगा। तुम्हारे पास और कोई विकल्प नहीं है।
- तुम मुझे जानने लगी हो।
- तुम्हें जानना करवट बदलने जितना आसान है। तुम्हें सोते हुए भी जाना जा सकता है।
- फिर भी हम नहीं सोते...!
- क्योंकि हमारा जागते रहना लिखा है...
- और शाहरुख? उसका क्या लिखा है?
- जो मेघा का लिखा है।
- चरित्रहीन होना?
- झूठ...
- हाँ, झूठ।
[+/-] |
सपनों का मर जाना सामाजिक हर्ष का विषय है |
सपनों का मर जाना
खिड़कियों से नहीं झाँकता
कि उसे झिड़ककर भेजा जा सके भीतर
या लगाए जा सकें परदे,
सपनों का मर जाना
बाहर नेमप्लेट पर नाम के नीचे
एमए एलएलबी की तरह
नंगा खुदा रहता है।
मरे हुए सपनों वाले आदमी
रात भर व्हिस्की पीकर भी
नाक की सीध में चल सकते हैं
कई किलोमीटर तक सीधे,
मरे हुए सपनों वाली औरतें
बच्चा जनने के दर्द में भी
नहीं बकती ओछी गालियाँ।
मरे हुए सपनों वाले शहर में होते हैं
बहुत से स्कूल, मन्दिर, अस्पताल और शराब के ठेके।
मरे हुए सपनों वाली कुँवारी लड़कियाँ
नहीं भागती आवारा लड़कों के साथ,
मरे हुए सपनों वाली ब्याहताएँ
अपनी पंखुड़ियों की खुशबू
तिजोरी में संभालकर रखती हैं
सिर्फ़ अपने पतियों के लिए।
मरे हुए सपनों वाले बच्चे
अच्चे बच्चे होते हैं,
मरे हुए सपनों वाले ग्रेजुएट
बनते हैं अच्छे क्लर्क, अच्छे नागरिक।
सपनों का मर जाना
सामाजिक हर्ष का विषय है।
इस दिन को
सदियों से मनाती आई हैं माँएं
संतानों के समझदार हो जाने के दिन के रूप में।
[+/-] |
उसका बहुत मन करता था कि वह आँखों में तितली या गुब्बारा या माउथ ऑरगन लगाकर सोए। |
डर लगाकर सोने के सपनों में उसकी आवाज़ कुछ ज़्यादा मीठी हो जाती थी और रीढ़ हल्की सी मुड़ जाती थी। बीमार होकर वह जल्दी मर न जाए, इस डर से वह सुबह जल्दी उठने के सपनों में प्राणायाम करता था। दुनिया में कुछ बड़ा हो और कहीं उसे पता ही न चले, इस डर से शाम को साढ़े आठ बजे के सपने में टी वी पर समाचार देखता था। उसकी पत्नी उसे छोड़कर न चली जाए, इस डर से रात सवा दस बजे के सपने में उसे नियम से उसी तरह प्यार करता था, जिस तरह उसकी पत्नी को पसंद था। डर लगाकर सोने के सपनों में बीमे की किश्त और बैंक के खातों के नम्बर भी घूमते रहते थे।
उसका बहुत मन करता था कि वह आँखों में तितली या गुब्बारा या माउथ ऑरगन लगाकर सोए। एक दिन एक तितली उसकी बन्द आँखों में आकर सो गई थी तो उसे बहुत मीठी नींद आई थी, जिसमें बारिश से पहले के सात इन्द्रधनुष थे। लेकिन जब चार बजे का अलार्म सुनकर वह उठा और आँखें खोलकर उसने अपनी पत्नी से चाय बनाने के लिए कहा तो तितली नाराज़ होकर भागती हुई उड़ गई। उस दिन से वह अख़बार के बच्चों वाले पन्ने से तितलियों की तस्वीरें काटकर अपनी सफेद शर्ट की जेब में इकट्ठी करने लगा, लेकिन एक दिन उसकी पत्नी ने घर में रद्दी बढ़ जाने के बाद जगह कम पड़ जाने के डर से उन तितलियों को बेच दिया। उसके बाद रात के सवा दस बजे पत्नी ने उसे उस तरह प्यार किया, जैसे उसे पसन्द था और उसे समझाया कि तितलियाँ बढ़ती जातीं तो एक दिन घर में सिलाई मशीन, आटे के कनस्तर, साइकिल और पलंगों को रखने की जगह नहीं बचती। उसकी पत्नी ने उसे कहा कि उसे तितलियों से डरना चाहिए और गुब्बारों से भी, क्योंकि उनमें पागल कर देने वाला नशा होता है जिसमें आदमी को करणीय-अकरणीय और नैतिक-अनैतिक का भेद भी याद नहीं रहता। उसके बाद उसकी पत्नी ने उसकी छाती के बालों को सहलाते हुए उसके कंधे को चूमा था और वह आँखों में डर लगाकर सो गया था। उसने जो चादर ओढ़ रखी थी, सोने के दौरान उसमें एक भी सलवट नहीं बढ़ी थी।
[+/-] |
मुझे चाँदी के दिन चाहिए... |
- कहाँ हो?
- कहीं नहीं।
- कहीं तो होगे ही...बताओ ना!
- चाँदी के दिन में।
- चाँदी के दिन कैसे होते हैं?
- उनकी बहनों का नाम रात नहीं होता।
- उनकी सुबहें सुबह ही रुक जाती हैं क्या, जब हॉकर अख़बार की एजेंसी से गिनकर अपने हिस्से के डेढ़ सौ अख़बार उठा रहा होता है या दूधवाला गाँव से दूध लेकर लौटते हुए पेड़ के सहारे अपनी बिना स्टैंड वाली मोटरसाइकिल खड़ी करके नहर के किनारे पानी मिला रहा होता है? उनमें स्कूल नहीं होते क्या, जिनमें बच्चों में प्रार्थना की घंटी बजाने के लिए लड़ाई हो और फिर प्रार्थना के बाद जन गण मन भी गाना पड़े? दफ़्तर नहीं होते? पोस्ट ऑफ़िस भी नहीं? काम नहीं होता? लंचब्रेक भी नहीं? खाली पीरियड में बच्चे अंताक्षरी भी नहीं खेल पाते?......जल्दी बोलो...मुझसे सब्र नहीं होता.....और इतवार की छुट्टी? रंगोली दिनभर आती रहती है क्या? हेमामालिनी बोलते बोलते थक जाती होगी......नहीं? फिर संगीता बिजलानी को बुलाते होंगे ना....और फिर एक बार बोलने के बाद एक साथ तीन तीन गाने दिखाने लगते होंगे। है ना? और शाम का बचा हुआ हलवा कभी खराब भी नहीं होता होगा। लेकिन जिस इतवार को बाल कटवाने होते होंगे, तब कैसे काम चलता होगा? इतनी सुबह तो दुकानें नहीं खुलती ना? और गंगापुर वाली मौसी तो इतवार की सुबह दस बजे फ़ोन करती है। वह तो फ़ोन के पास दस बजने के इंतज़ार में दिनभर क्रोशिया लेकर बैठी रहती होगी?.....बताओ ना...ऐसे ही होते हैं क्या चाँदी के दिन?
- हाँ, ऐसे ही होते हैं। वे दिन भर सुबह रहकर सुबह की मीठी नींद सोते हैं।
- और मौसी? और अंताक्षरी? और रंगोली?
- तुम्हें सामने वह लाल रोशनी दिख रही है?
- लेकिन मौसी....अंताक्षरी....?
- क्या होगी वह रोशनी?
- ट्रेन तो नहीं।
- क्यों?
- बुद्धू, ट्रेन की लाइट लाल थोड़े ही होती है। लाल होती तो अपनी लाइट देखकर हर जगह रुककर ना खड़ी हो जाती?
- और बरगद का पेड़ भी नहीं।
- क्यों?
- पागल, कभी बरगद के पेड़ पर बल्ब उगा देखा है?
- हो सकता है कि कोई पूजा करने आया हो और उसने लगा दिया हो।
- लेकिन बरगद के पेड़ पर बिजली कहाँ से आई होगी?
- खंभे पर से डोरी डाल दी होगी किसी ने।
- छापा पड़ेगा तो पेड़ जुर्माना कैसे भरेगा? जेल कैसे जाएगा?
- जो लोग पानी चढ़ाते होंगे, वे मिलकर पैसे इकट्ठे करेंगे और मिलकर जेल जाएँगे।
- और उसके बाद पेड़ पर मीटर लग जाएगा क्या?
- नहीं, डोरी हटा दी जाएगी।
- और लाल रोशनी?
- फिर हम कहेंगे कि वे बहुत सारे गुलाब हैं, जो रात की रानी से प्यार करते हैं और इसलिए चमक रहे हैं।
- लेकिन रात को प्यार नहीं करते।
- क्यों?
- गन्दा होता है।
- चाँदी के दिन में रहने वाले तो सुबह सुबह अधसोया सा प्यार कर सकते हैं, लेकिन बाकी लोगों को तो रात में ही प्यार करना पड़ता है।
- तुम्हें चाँदी के दिन चाहिए?
- मुझे चाँदी के दिन चाहिए...हज़ार दिन। नहीं, दो हज़ार।
- मुझे भी...
- लेकिन तुम्हारे पास तो हैं।
- किसी के पास नहीं हैं। उन्हें कोई राजा चुराकर ले गया है....या कोई जादूगर...या कोई तांत्रिक....या कोई लड़की....या कोई सपना।
- अब क्या होगा?
- होना क्या है, हम उन्हीं दिनों में रहेंगे, जिनकी बहनें रात हैं और जल्दी सुबह वाले सपने देखेंगे और फिर दफ़्तर जाते हुए उनके सच होने की राह तकेंगे।
- और उनमें न रह पाए तो? या राह देखते देखते थक गए तो? या दफ़्तर में आग लग गई तो?
- वह बरगद नहीं है।
- फिर क्या है?
- किसी की आँखें हैं, जो रात भर जगने से लाल हो गई हैं...
- या किसी का घाव है जिसमें से लगातार खून रिस रहा है...
- या किसी का कलेजा है जो हफ़्तों तक भूखा रहने से सूज गया है...
- या कोई ठिठुरता हुआ बच्चा है, जो सर्दी की रात में घर के बाहर छूट गया है और पूरा घर सो गया है...
- या उम्मीद है जो बुराइयों के बक्से से छूटकर अकेली भाग आई है...
- या मुस्कुराती हुई लड़की के गाल हैं, जो शर्मा गई है...
- या कुछ भी नहीं है...
- या सब कुछ है....
- हाँ शायद...
- हाँ..पक्का..
- हाँ।
[+/-] |
मैं जिनके लिए नहीं लिखता, वे मुझ पर अपना वक़्त बर्बाद न करें |
यह सब लिखने में वक़्त क्यों गँवाना पड़ा, यह जानने के लिए इन दो लिंक को देख लीजिए।
http://merasaman.blogspot.com/2008/07/blog-post_22.html
http://bal-kishan.blogspot.com/2008/07/blog-post_22.html
शायद जयशंकर प्रसाद ने ही एक बार कहा था कि मैं रिक्शे वालों के लिए नहीं लिखता। मैं न ही जयशंकर प्रसाद हूं, न ही बन सकता हूं और न ही बनना चाहता हूं। लेकिन गौरव सोलंकी नामक साधारण व्यक्ति होते हुए भी मुझे पूरा अधिकार है कि मैं कठोरता से कहूं कि मैं किसके लिए लिखता हूं और किसके लिए नहीं और सबसे पहले, मैं कम से कम उन बालकिशनों या बालमुकुन्दों के लिए नहीं लिखता जिनके लिए कविता चाय में डुबोकर या बिना डुबोए खाई जा सकने वाली डबलरोटी से ज्यादा कुछ नहीं है। मैं किसी को अपना लिखा पढ़ने का न्यौता नहीं दे रहा और मैं भी किसी को जाकर पढ़ता हूं तो बिना न्यौते के जाता हूं। पसन्द आता है तो बार बार बिना बुलाए जाता हूं और पसन्द नहीं आता तो भी दर्ज़नों लोगों के ब्लॉग पर जाकर नहीं लिखता कि कविता या साहित्य के नाम पर लगातार बकवास क्यों लिख रहे हो? और न ही उन तीस बुद्धिजीवी प्रशंसक टिप्पणीकारों से कहता हूं कि तारीफ़ करके बदले में कमेंट पा लेने से क्या हो जाएगा?
जो लोग ऐसा लिख रहे हैं और झूठी वाहवाही पाकर अपनी पत्नी, बच्चों या रिश्तेदारों को अपनी रचनाओं पर आई टिप्पणियों की संख्या दिखाकर खुश हो रहे हैं, मैं नहीं जानता कि उनके जीवन अथवा लेखन का उद्देश्य क्या है। लेकिन मुझे अपने लेखन और जीवन, दोनों के उद्देश्य बहुत अच्छे से मालूम हैं और मैं नहीं चाहता कि डबलरोटी वाले लोग उन्हें छूकर भी गुजरें।
बालकिशन, आपको मेरा लिखा समझ में नहीं आता तो आपकी गलती नहीं है। मैं बता सकता हूं कि आपको और क्या क्या नहीं समझ आएगा। आपको सलमान रश्दी या विनोद कुमार शुक्ल का लिखा समझ नहीं आएगा, आपको सत्यजीत रे की फ़िल्में समझ में नहीं आएंगी, आपको मक़बूल फ़िदा हुसैन के चित्र समझ में नहीं आएंगे, अनुराग कश्यप की ‘नो स्मोकिंग’ या इस साल का ऑस्कर जीतने वाली ‘नो कंट्री फॉर ऑल्ड मैन’ भी आपको समझ नहीं आएगी। लेकिन आपको समझ में न आने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि वे लोग भी आपके लिए नहीं बना रहे हैं। उन्हें देखने पढ़ने समझने वाले अलग लोग हैं, जो लाफ़्टर चैलेंज के चुटकुले नहीं सुनते सुनाते।
मुझे भी दुनिया की लाखों करोड़ों चीजें समझ नहीं आती। हर व्यक्ति की अपनी अलग सीमाएँ होती हैं, इसलिए आपकी भी हैं। बेहतर होता है कि बिना किसी के कहे और बिना किसी के सामने फ़जीहत करवाए समय रहते उन सीमाओं को पहचान लिया जाए और उन्हें पार करने की कोशिश न की जाए।
मैं जो भी, जैसा भी लिखता हूं, ब्लॉग उन चीजों के लिए बहुत अच्छी जगह नहीं है और यदि मैं माँग और उत्पादन के सिद्धांत को मानूं तो मुझे ब्लॉग लिखना बन्द कर देना चाहिए। लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं, जिनके लिए और सबसे ज्यादा अपने लिए लिख रहा हूं। मैं समाजसेवी नहीं हूं कि औरों के लिए लिख पाऊं। अगर किसी को भी मेरा लिखा समझ नहीं आता तो मुझ पर अपना कीमती वक़्त बर्बाद न करे। यदि आपके लिए साहित्य उस डबलरोटी से हल्का सा भी ज्यादा कुछ है तो ऊपर लिखा कुछ भी आपके लिए नहीं है। आप मुझे पढ़िए और भला बुरा जैसा भी लगे, बताइए।
Peace
[+/-] |
और जीते रहना इतना आसान है कि |
जीते रहना इतना आसान था
कि जब हमारी माँओं ने
हमारी डायरियाँ कबाड़ में डालते हुए
छातीपीट पश्चाताप से कहा
कि पैदा होते ही क्यों नहीं घोट दिया तुम्हारा गला
तो हम अपनी बाग बाग गलियों के किनारे पर
दिनभर बेशर्मी से खड़े रहने वाले
फक्कड़ दोस्तों को बक आए माँ-बहन की गालियाँ
और वे मुस्कुराकर डाले रहे गलबहियाँ,
आशीर्वाद देते रहे
कि जीते रहो।
जीते रहना इतना आसान था
कि हर इतवार को देखी हमने
बेदिमागी फ़ीलगुड फ़िल्में,
उससे पहले देखी
उनके मुँह पर हाथ रखकर जबरदस्ती कुचल देने की सीमा तक उत्तेजित करने वाली
ढेर सारी लड़कियाँ,
(उनका शुक्रिया। वे जिएँ सौ बरस सुरक्षित, खुश, स्वच्छंद।)
उससे पहले मारी सड़क के एक निर्दोष पत्थर को ठोकर,
उससे पहले चिढ़ गए पूरा चाँद देखकर,
बीच में कहीं रुक रुककर रोते रहे
बेवज़ह।
हम सब रोते हैं।
जीते हैं हमारे माँ पिता
लेकिन क्यों अनाथों जैसी हैं हमारी दहाड़ें?
हमें मरना है
लेकिन फिर से एक जन्म की संभावना सोचकर
ठहर जाते हैं हमारे कदम।
हम सब रोते हैं जोर जोर से
कि कहीं
तुम डर न जाओ सन्नाटे में।
शहर में अँधेरा है,
इतना कि चावल बीनते हुए
रोशनी के लिए
रह रहकर जला देती हो तुम मेरी आँखें।
अपनी नाप के जूतों से सिर ढककर
सो गए हैं सब
और जिन्हें बनानी हैं
या खरीदनी हैं टोपियाँ,
उन्हें पागल होना पड़ा है।
जिनको जाना था शिकार पर,
वे पढ़ रहे हैं शिकार की किताबें।
आईने में ऐब है
कि आत्मविश्वास खोकर शिकारी बनाते हैं
दफ्तरों में बहीखाते।
बीच बरसात में कोई गाता है राग मल्हार,
बच्चे बजाते हैं ताली,
बुढ़ियाएँ नाक भौं सिकोड़ती हैं,
बहुएँ चढ़ा देती हैं दाल की पतीली तुरत फुरत,
भीगती हैं मनियारी वाले की बैंगनी चूड़ियाँ,
फिसल जाता है गली के मोड़ पर एक स्कूटर,
देखने के लिए सब बाहर
तुम अकेली घर के अन्दर,
उठाती हो फ़ोन
और रख देती हो,
फिर आसमान को देखती हो,
फिर काटने लगती हो छौंक के लिए प्याज,
सलाद के लिए खीरे
और जीते रहना इतना आसान है कि
उस न की जा सकने वाली फ़ोन कॉल को भुलाकर
प्रायश्चित में रात का खाना खाए बिना
और एक भी क्षण सोए बिना
सुबह भीगे हुए बाल तौलिए में लपेटकर
खिले हुए गुलाब की सी ताज़गी से
बनाई जा सकती है
दो लोगों की चाय।
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तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे |
- तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे।
- अश्लील भी तो सुन्दर हो सकता है।
- हाँ, लेकिन स्वीकार्य नहीं।
- मैं कहाँ स्वीकार्य बनाना चाहता हूं?
- तो क्या बनाना चाहते हो तुम?
- नदी के बीचों बीच ज़मीन...
- यानी?
- यानी पसीने से सनी आस्तीन और उसमें बैठे साँप के खाने भर लायक मोतीचूर...
- तो नदी फिर नदी नहीं रह जाएगी, द्वीप बन जाएगी ना?
- पेट भर जाएगा तो साँप भी कहाँ साँप रह जाएगा?
- और आस्तीन?
- उसमें मेहनत है, इसलिए मैली है।
- द्वीप पर तो जहाज ठहरा करेंगे, कप्तान उतरकर अमरूद तोड़ेगा, लोग फुटबॉल खेला करेंगे और नदी रोया करेगी।
- नदी में नाव चलती है, जहाज नहीं।
- नदी में द्वीप होते हैं?
- हाँ।
- नदी को जो कह दो, उसे होना पड़ता है......द्वीप भी।
- नदी बाढ़ ले आए तो सब कुछ डुबो भी सकती है।
- नदी की आँखें बार-बार सूख जाती हैं।
- मैं तुमसे प्यार करता हूं।
- झूठ...
- सच, तुम्हारी कसम।
- सब सफेद झूठ।
- आस्तीन रोती है।
- और साँप?
- उसे रोना नहीं आता।
- तुम्हें आता है?
- टिटहरी बोल रही है।
- क्या? मुझे तो नहीं सुनता, जबकि मेरे इतना पास है कि बता नहीं सकती।
- तुमने कानों में चूड़ी भर ली है...और बिन्दी भी।
- तुम इतने बेशर्म हो गए हो कि भोले लगने लगे हो।
- मुझे तुम्हारा नाम याद है और फिर भी तुम्हें पुकारता हूं तो कुछ और कहता हूं।
- क्या?
- टिटहरी।
- तो कहते रहो। मैं बुरा नहीं मानूंगी।
- सब बुरा मानते हैं।
- सब बुरे हैं।
- तुम्हारी पलकें मुँदने लगी हैं।
- अख़बार में छपा है क्या?
- अख़बार में तो झूठ छपता है।
- तुम्हारी आस्तीन कहाँ गई?
- अपने कमरे में जाकर सो गई।
- और साँप?
- अब मैं नया अख़बार छापा करूंगा।
- तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे।
- अश्लील भी तो सुन्दर हो सकता है।
- हाँ, लेकिन स्वीकार्य नहीं......
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रातें उन दिनों की चालाक प्रेमिकाएं थीं। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे... |
वे नारंगी सपनों और लाल सुर्ख़ नारंगियों के दिन थे। वे जवान लड़कों और मदहोश कर देने वाली लड़कियों के दिन थे। वे लम्बी गाड़ियों, ऊँची इमारतों और गाँधी की तस्वीर वाले कड़कड़ाते नोटों के दिन थे। वे अख़बारी वर्ग-पहेलियों और शॉपिंग करती सहेलियों के दिन थे। वे ‘राम जाता है’, ‘सीता गाती है’, ‘मोहन नहीं जाता’, ‘मोहन नहीं जाता’ के जुनूनी पढ़ाकू दिन थे। वे हफ़्ते भर सप्ताहांतों के दिन थे। वे उत्सवों के दिन थे, रतजगों के दिन थे, जश्न के दिन थे। वे कसरती बदन वाले जवान लड़कों और उंगलियों में धुएँ के छल्ले पहने हुई नशीली नर्म लड़कियों के दिन थे।
वे डाबर हनी के दिन थे लेकिन जाने कैसे कस्बाई बरामदों में शहद के छत्ते अनवरत बढ़ते ही जाते थे और गाँवों में कंटीले कीकर के पत्ते भी...
रातें उन दिनों की चालाक प्रेमिकाएं थीं। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे, लेकिन न जाने क्यों हमने अपने फेफड़ों में दहकते हुए ज्वालामुखी भर लिए थे कि हमारी साँसें पिघले सीसे की तरह गर्म थी, कि हमारी आँखों से लावा बरसता था, कि हमारे हाव-भाव दोस्ताना होते हुए भी भयभीत कर देने की सीमा तक आक्रामक थे, कि हम आवाज में रस घोलकर रूमानी होना चाहते थे तो भी हम शर्म से सिर नीचा कर देने वाली गालियाँ बकते थे।
मैं उसके मोबाइल पर फ़ोन करता हूं। पहली बार में फ़ोन नहीं उठाया जाता। मुझे मजबूर किया जाता है कि मैं देर तक उसकी हैलो ट्यून का ‘ये दूरियाँ अब हैं कहाँ? ये फ़ासले ना दरमियाँ’ सुनता रहूं। दूसरी बार में उसका पति फ़ोन उठाता है और मैं काट देता हूं। मैं दिन के साथ बीतता हुआ दोपहर होता हूं और फिर फ़ोन करता हूं। इस बार गाना बदल गया है। उसे बदलने के लिए एक एस एम एस करना पड़ा है, जिसके पन्द्रह रुपए लगे हैं। उसका पति महीने के पन्द्रह हज़ार कमाता है और वह उसके ऑफिस जाने से पहले गिनकर पन्द्रह बार मुस्कुराती है। उसकी अँगूठी की उंगली से खेलता हुआ पति फिर फ़ोन उठाता है और मैं काट देता हूं।
.... मैं उसके नोकिया 6600 - एयरटेल मोबाइल पर अपने नोकिया 1100 – बी एस एन एल से पन्द्रह बार फ़ोन करता हूं और उसका पति ही फ़ोन उठाता है....
मैं दीदी को फ़ोन करता हूं तो जीजाजी फ़ोन उठाते हैं। वे बहुत खुश हैं, आज उनका प्रमोशन हुआ है, वे मुझे छुट्टी लेकर आने को कहते हैं, फिर याद आता है तो मेरा हाल-चाल पूछते हैं, गर्लफ्रैंड का हाल-चाल पूछते हैं – मैं चुप रहता हूं, पूछते हैं कि वहाँ भी बारिश है क्या, वीकेंड पर कौनसी फ़िल्म देखी.....
और दीदी रसोई में मटर पनीर बना रही हैं।
माँ, मैं उदास हूं।
माँ, ये तुम्हारे रेशमी बालों के सफेद सन होने के दिन हैं। मैं तुम्हारे मोबाइल पर फ़ोन करता हूं और इस संभावना से काँप जाता हूं कि फ़ोन पापा उठाएँगे। दो घंटियाँ बजती हैं और मैं फ़ोन काट देता हूं। मैं इस उम्मीद की हत्या नहीं करना चाहता कि तुम्हें फ़ोन करूंगा तो तुम ही उठाओगी। तुम घर में आराम से पैर पसारकर ‘कसम से’ देख रही हो।
- छोड़ो भी अब। कहने लगते हो तो जाने क्या क्या कहते रहते हो...
- आज तुमने क्यों नहीं उठाया फ़ोन?
- तुम भी जानते हो कि अब सब पहले जैसा नहीं रह गया है।
- पहले भी कुछ अच्छा कहाँ था कि उसके न रहने पर कुछ न रहना लगे।
- रात को ठीक से सोए नहीं शायद। आँखें लाल हैं तुम्हारी।
- नहाते हुए साबुन लगाकर आँखें बन्द नहीं कर पाया था।
वह छलकते हुए दूध की तरह हँस देती है।
- इस बार क्या चाहिए जन्मदिन पर?
- कि तुम्हीं फ़ोन उठाया करो।
- उंहूं.....
वह मुँह बनाती है और बनाकर फेर लेती है। मेरा मन करता है कि वह अभी वहाँ से गायब होकर आकाश में कहीं खो जाए या खो न सके तो तारा ही बन जाए।
वह मेरे लिए चाय बनाने जाती है और मैं सोचता हूँ कि उबलती चाय उसके पैरों की गुलाबी उंगलियों पर गिर जाए या उसके सिर पर ऊपर से हमाम-दस्ता गिरे और उसे मरने से पहले बहुत दर्द हो। मैं सोचता हूं कि रसोई की मेज के पैरों पर लगी दीमक उसके भीतर घर कर लें और उसे खाती जाएँ।
मैं उससे बहुत प्यार करता हूं, अपने जीवन-दर्शन-पैशन से भी ज्यादा। लेकिन जाने कैसे कलमुँहे अजीब दिन आ गए हैं कि मैं उसे चूमता हूं तो काट लेता हूं। वह मुझे चूमती है तो अगले ही पल पलटकर सुबक सुबक रोने लगती है। मैं उसे सोचता हूँ तो दुर्घटनाएं सोचता हूँ। वह मुझे सोचती है तो घर-मोहल्ला-दुनिया-परम्पराएं सब कुछ सोचती है, सिवाए मेरे।
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तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं और नॉस्टेल्जिया |
मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूं और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूं। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।
फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।
- सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं?
मैं मुस्कुरा देता हूं। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूं और बनाने लगता हूं। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी।
- तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?
- मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है।
- कहानी कब सुनाओगे?
- तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?
- चाय में लिखा है।
- अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ?
- नहीं, दूसरी की।
- मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ?
- नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं?
- तुम सवाल बहुत पूछती हो।
वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।
मैं पूछता हूं, “सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?”
- मुझे नहीं पता...
मैं जानता हूं कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूं। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौनसी?”
मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूं। मेरे गाल लाल हो गए हैं।
उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।
- कंगूरे क्या होते हैं?
अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।
मैं पूछता हूं - तुम्हें तैरना आता है?
वह कहती है कि उसे डूबना आता है।
और मैं आखिर कह ही देता हूं कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूं। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूं। मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है। उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूंढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने ‘ड्रैकुला’ देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी...शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा। लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का ‘एक से बढ़कर एक’ याद आता है, सुनील शेट्टी का ‘क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो’ याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो।
वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं।
कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।
मैं कहता हूं कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है?
मैं नहीं बताता।
[+/-] |
बहुत देर होने के ठीक बाद |
- बहुत देर हो गई है।
वह एक बार में ही ऐसे बोली, जैसे दस बार बोल रही हो।
उसका घर हमेशा भरा रहता था और देर कुछ जल्दी ही हो जाती थी। इतना भीड़ भड़क्का कि मैं वहाँ साँस भी लेता था तो जैसे सबको मेरी घुटन महसूस हो जाती थी और सब आँखें फाड़ फाड़कर मुझे देखने लगते थे। कई बार तो मेरे पहुँचने से पहले ही देर का होना हुआ मिलता था। मैं मिन्नतें करके देर को किसी तरह आगे बढ़वाता रहता था और हर बार लौटते हुए मुझे लगता था, जैसे मैं बहुत सारे अहसानों के बोझ तले दबा हूं।
- बहुत देर हो गई है...
उसने फिर से कहा।
- तो?
- मुझे खाना भी बनाना है।
- दो ही तो लोग हो...
इतनी भीड़ उन दो की ही थी या उस अकेली की ही। बाकी बहुत सारा सामान भी था। लेकिन हर समय ऐसा लगता था कि घर में दर्जन भर लोग तो हैं ही..और दो चार बच्चे भी।
- हम जिनसे प्यार करते हैं, उनके जाने के बाद भी उनका एक हिस्सा हमेशा के लिए हमारे पास रह जाता है।
एक बार वह किसी पत्रिका में पढ़ कर मुझे बता रही थी और मैं झट से पूछ बैठा था कि तुम्हारे घर में इतनी भीड़ क्यों है?
- कल से ऐसा लग रहा है जैसे सब कुछ ख़त्म होने वाला है...
मैंने कहा तो वह चौंकी नहीं। वह चौंकना चाहती थी, मगर नहीं चौंक पाई।
- सब कुछ क्या?
- मुझे लगता है कि किसी दिन उसका तबादला हो जाएगा और तुम उसके साथ अचानक यह घर छोड़कर कहीं भी चली जाओगी। ऐसी जगह, जहाँ मैं तुम्हें खोज भी न पाऊँ....
उसने नहीं कहा कि ऐसा नहीं होगा। मुझे लग रहा था कि ऐसा होने वाला है।
तभी उसे लगा कि बाहर कोई है। जब मैं वहाँ होता था तो वह अपने कान दरवाजे पर रख आती थी और आँखें गली के मोड़ पर। इसीलिए तो जब मैं चिल्लाता था तो उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आ पाता था। वह शायद मुझे देख भी नहीं पाती थी। एक दिन मैं जा नहीं पाया और अगले दिन गया तो वह कहती रही कि कल तुम जो नीली शर्ट पहनकर आए थे, वह अच्छी नहीं लग रही थी। मैं आश्चर्य से उसकी सूनी आँखें पढ़ने की कोशिश करता रहा था। मुझे लगा था कि वह मेरे जाने के बाद उसके आने पर भी मुझसे ही बात करती रहती होगी।
वह दौड़कर गई और दरवाजे पर देखकर फिर लौट आई।
- मैं लेट जाऊँ?
- नहीं...
उसके मना करने पर भी मैं लेट गया था। अब वह अपने बिस्तर पर नहीं बैठी, खड़ी रही।
उस नर्म बिस्तर पर लेटते ही मेरे अन्दर दुख की एक लहर सी उठी और मैं अचानक उठकर खड़ा हो गया। शायद वह जानती थी कि ऐसा होगा, इसीलिए उसने मुझे वहाँ लेटने से मना किया होगा।
मैं बिना कुछ कहे ही बाहर निकल आया और देर तक, दूर तक दौड़ता रहा। मैं उस दिन सच में पलायन करना चाहता था, कहीं दूर जाकर छिप जाना चाहता था। मैं इतना निराश हो गया था कि कुछ घंटों के लिए भगवान को भी मानने लगा था।
अगले दिन सूरज नहीं उगा। दिन भर पूरे शहर की सड़कों पर मर्करी बल्ब जलते रहे। उस दिन करवा चौथ होनी थी, लेकिन दूर से भागकर सीधी अमावस आ गई थी। मैं उसका घर भूल गया था। अँधेरे में किसी तरह ढूंढ़कर मैं उसके घर तक पहुँचा तो ताला लटक रहा था। उसकी आँखें वहीं दरवाजे की चौखट के ऊपर रखी थी। मैंने उन्हें उठाकर अपनी आँखों में रख लिया। उसने एक बात का दिया जलाकर अपनी दहलीज पर रख छोड़ा था। वह बात दुनिया की अकेली बची हुई बात थी। बाकी सब बातें निरर्थक होकर मर गई थीं।
उसके बाहर वाले कमरे की अलमारी के किवाड़ पर एक शाम मैंने पेंसिल से एक कविता लिखी थी...
...... बहुत देर हो जाने से ठीक पहले
तुम मुझे पुकारकर बुलाने के लिए
मुझे याद कर रात भर रोना
और मैं नहीं आ पाऊँ तो
बहुत देर होने के ठीक बाद
सफ़र के लिए पूरियाँ बनाना
और आलू की सूखी सब्जी भी
और चली जाना बस में बैठकर
गृहशोभा पढ़ते हुए।
[+/-] |
जैसे चाँद को देखा करते थे |
- क्या खाओगे तुम?
और मेरे कुछ कहे बिना ही उसने ऑर्डर देने के लिए फ़ोन उठा लिया।
- दो जूस और दो बटर टोस्ट।
गर्मी की दुपहरी में वह कम से कम बटर टोस्ट खाने का तो टाइम नहीं था, चाहे ए सी चल रहा हो और बटर टोस्ट मुझे कितना भी पसन्द हो। माँ वहाँ होती तो आँखें जरूर तरेरती।
माँ, उसके साथ होता था तो मुझे तुम सबसे ज्यादा याद आती थी।
- मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए...बस कभी कभी तुम्हारी गोद में लेटकर रोने का मन होता है...
कुछ नहीं चाहने के बाद वाली बात मैं शायद माँ से भी एकाध बार कह चुका हूं। पक्का तो याद नहीं कि कहा है या नहीं, लेकिन कहने का मन बहुत बार किया है।
वह डर सा गई।
- अभी मत रोना...
और उसने अपने पैर समेट लिए जो मेरे पैरों के पास ही थे।
- नहीं, मुझे पता है कि लड़कों को किसी के सामने नहीं रोना चाहिए।
- और जो मेरे सामने रोया करते थे...
- गोद में कहाँ लेटता था?
वह चुप हो गई। दीवार पर एक चित्र टँगा था, जिसमें आग थी, लड़की थी, बिल्ली थी, मिट्टी थी और पानी नहीं था।
- तुम्हारा सौन्दर्य-बोध अच्छा हो गया है...
मैं चित्र में डूब गया और जब डूबता रहा तो मर जाने का मन किया, लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़कर बचा लिया। बटर टोस्ट और जूस आ गया था।
हममें बहुत छीना-झपटी हुई ब्रेड खाने के लिए.....टुकड़े टुकड़े करके हम आधे घंटे तक चार स्लाइस खाते रहे।
- स्कूल में हिन्दी की क्लास में जब चतुर्वेदी सर तुम्हें खड़े होकर पाठ पढ़ने को बोलते थे तो मुझे बहुत अच्छा लगता था।
- क्यों?
मैं मुस्कुरा दिया।
- तुम्हारा बोलना मुझे अच्छा लगता था...तुम नदी की तरह बहते हुए पढ़ते थे। मैं तुम्हारी नकल करने की भी कोशिश किया करती थी। करके दिखाऊँ?
हिन्दी का कोई अख़बार वहाँ नहीं था। उसने कहीं से टाइम्स ऑफ इंडिया ढूंढ़ निकाला और जोर जोर से एक आर्टिकल मेरी तरह पढ़ने की कोशिश करने लगी। दो चार लाइन पढ़कर वह समझ गई कि वह मेरी तरह पढ़ना भूल गई है। उसने मुस्कुराकर अख़बार मुझे थमा दिया। मैं पढ़ने लगा....
मैं उसके हेयर क्लिप से खेल रहा था, जिसके दो तीन दाँत मैं तोड़ चुका था और जब भी खट से कोई दाँत टूटता था तो वह मुझे डाँट देती थी।
वह सामने बैठी थी। क्लिप उसके बालों में नहीं था।
- कभी कभी मन करता है कि शादी कर लूं...
वह बोली और मुझे हँसी आ गई। वह भी हँसने लगी।
- क्यों हँस रहे हो?
वह पूछती रही, मगर मैंने नहीं बताया।
- तुम्हारा भी मन करता है कभी कभी?
- हाँ...कभी कभी करता है...
अब हम बराबरी पर थे।
- जानती हो...मैंने अमेरिका के एक रेडियो चैनल पर कविता पढ़ी...
- तुम इतने फ़ेमस हो गए हो?
उसने औपचारिकता के लिए पूछा और फिर जवाब भी नहीं सुनना चाहा, जैसे मैं झूठ बोल रहा हूं या इसमें कुछ बड़ी बात ना हो। मुझे उसका ऐसा करना अच्छा लगा।
- मेरी एक कविता सुनोगे...
उसने अंग्रेज़ी में चार पंक्तियाँ सुनाईं। मुझे अच्छी लगी लेकिन उसे लगा कि उसका मन रखने के लिए मैंने प्रशंसा की है। उसका चेहरा उतर गया। मेरा मन किया कि उस उतरने को अपनी हथेली से उतार दूं लेकिन मैं वैसे ही, वहीं बैठा रहा। अब सोचता हूं कि उसके अपराध में मुझे जेल भी भेज दिया जाता तो भी मुझे उसकी उदासी उतारने के लिए कुछ करना चाहिए था।
- यह क्लिप तुम ही ले जाना, खेलते रहना।
वह अचानक बोली। मैं उठकर चलने को हुआ और क्लिप भूल गया।
- ‘जाने तू या जाने ना’ देखने चलोगे?
- हाँ..
- लेकिन मैं तो अगले हफ़्ते जा रही हूँ।
- फिर कैसे देखेंगे?
- अलग अलग देख लेंगे एक ही वक़्त पर...
- जैसे चाँद को देखा करते थे?
- हाँ, जैसे चाँद को देखा करते थे...और तुम डूबते हुए सूरज को चाँद समझ कर देखते रहते थे...
- तुम्हें याद है?
- नहीं, मैं पिछले साल भूल गई थी।
- मैंने चाँद देखना सीख लिया है...
- तुम खुश रहा करो।
- नहीं रहूंगा।
- जानते हो, तुममें और मुझमें बहुत कुछ एक सा है...
- जितनी बार मिलते हैं, यह एक सा और बड़ा हो जाता है।
वह चुप रही।
- तुम ओशो ज्यादा पढ़ने लगी हो?
- नहीं, साल भर से पढ़ा ही नहीं।
मैं न चाहते हुए भी क्लिप को भूलता जा रहा था।
- अब तुम्हें चलना चाहिए।
- मैं बहुत ज़िद्दी हूं...
- तो...
वह मुस्कुराई।
- जा रहा हूं।
विदा होते हुए हम गले नहीं मिले, जैसे मिलते तो आसमान टूट पड़ता।
उसके दरवाजे के बाहर भी एक चित्र लगा था, जिस में पानी था, आग थी, लड़का था, शहर था और ईश्वर नहीं था।
[+/-] |
आँख में धूप है |
सफेद सा
काला सुराख हो गया है दिल में
जो फूलकर कुप्पा हो जाता है
बेमौके,
जैसे किसी मुम्बइया मसाला फ़िल्म को देखते हुए
अचानक रो देना।
तुम हर बात में
ले आते हो रोना,
जैसे समुद्र ले आता है चाँद,
रात ले आती है भूख,
लड़की ले आती है पतंग,
लड़का ले आता है गोल-गोल चरखा,
हवाई जहाज ले जाता है आसमान,
रोटी ले जाती है ज़िन्दग़ी।
ओह!
सब उलझ गया,
कट गई पतंग,
कम्बख़्त आसमान...
आँख में धूप है,
मींच लो,
जल जाएगी आँख
या धूप।
धूप की रात कच्ची है
तभी खट्टी है,
भूसे में रख दो, पक जाएगी
या रो लो शहद
लम्बा-लम्बा।
पगले,
रोना अकर्मक है
और पेड़ पर नहीं लगती रात
कि तोड़कर खाई जा सके
आड़ू, चीकू, अमरूद की तरह।
बहुत साइकेट्रिस्ट हैं इस शहर में,
क्यों नहीं आती नींद ?
फ़िल्मी हीरोइनों की तरह
बेकारी बहुत ख़ूबसूरत होती है,
देखा जा सकता है उसके आर-पार,
सोचा जा सकता है कुछ भी
भद्दा, बेतुका, अटपटा।
सिखाया जा सकता है पतंग उड़ाना,
फाड़े जा सकते हैं पोस्टर,
फोड़ी जा सकती हैं सिर से दीवारें,
दीवाना होकर सड़कों पर भटका जा सकता है,
बिना रिज़र्वेशन करवाए
लावारिस होकर जाया जा सकता है
किसी भी शहर,
लाहौर, कलकत्ता, पूना
या बम्बई भी।
[+/-] |
माथा तो नहीं है ना होठ? |
नदी के पार कौन है?
या सब इधर ही पड़े हैं
अधमरे से?
किसने फेंका है
अपने घर के सिर पर पत्थर?
किसने बुलाई है पुलिस
खुद को पकड़वाने के लिए?
भोर के तारे को क्या दुख है कि
लाल-लाल रहती हैं उसकी आँखें?
कौन रोया है मेरी छत पर इतना
कि रात भर में उग आई है
मुझसे ऊँची घास?
ग्यारह इंच की दूरी से
किसी ने पिस्टल से मारी है गोली
कि माँ की उंगली की
नोक के आकार का
दिल में हो गया है छेद
जिसकी आँखें रहती हैं भरी-भरी।
सड़क पर चल रही हैं गाड़ियाँ,
एक गाड़ी में तुम,
रेड लाइट, स्पीड ब्रेकर, यू टर्न
नया शहर
जैसे जंगल,
उतर क्यों नहीं जाती तुम
बाँया पैर पहले रखकर
अपशकुन की तरह
कि जहाँ तक नज़र जाए,
हर पैर पर दिखाई दे
तुम्हारा पैर,
मेरा माथा।
जंगल में लग जाए आग।
हम जब महानगर थे
तब भी अपने घुग्घू कस्बे थे।
बहुत मन किया था कि
शगुन के नोट की जगह
गले लगाकर
तुम्हारे माथे पर रख दूं
स्नेह के होठ।
माथा तो नहीं है ना होठ?
माथे पर से तो नहीं होता ना
शरीर के अन्दर तक जाने का
कोई असभ्य रास्ता
जिसे चूमने के लिए
अधिकार होना जरूरी हो...
हाँडी भर खिचड़ी,
कलफ़ लगे कुरते,
अचार के मर्तबानों जैसे दफ़्तर
और मेरे हिस्से का
छटांक भर आसमान भी,
सब बेमानी हो गए हैं।
सुनो,
मिट्टी में मिल जाना
बहुत आराम देता होगा ना?
[+/-] |
बहुत अनरोमांटिक हूँ मैं |
कंचनजंघा की छत पर
मेरे उबले हुए होठों की भाप से
सेक रहे थे हम
तुम्हारी हथेलियों की गुदगुदी
और हमारे हिस्से नहीं आए
गाँव वाले खेत को जाने वाली पगडंडी
आसमान तक खड़ी हो गई थी,
चलो, अपनी लड़खड़ाहट
इस रास्ते पर बोते हुए
टहलते हुए नीचे चलेंगे,
तुमने कहा था
और मैं कहता रहा था
कि कूद जाते हैं।
तुम सुनहरे रंग की हो
क्योंकि
तुम्हारे बनाए जा सकते हैं जेवर,
तुम्हें पहना जा सकता है,
तुम्हें रखा जा सकता है
तुम्हारे पति की शादी के बाद के
दिखावे के सामान में
सबसे आगे।
काजू, बादाम, किशमिश,
तुम प्लेट में सजे हुए
सूखे मेवों के रंग की भी हो,
जाने क्यों...
हमारे लौटने के बाद
गिलहरियों ने कुतर खाई थी
सारी पगडंडी
और हमारी बची हुई जूठी शराब पीकर
एक गिलहरी रात भर
आसमान से पूछती रही थी
उसके नीले रंग का कारण।
आधे बादामी,
आधे बावरे रंग के बदनाम गिरगिट
मैंने देखे हैं सड़क पर।
समझाओ ना उन्हें
कि ढूंढ़ लें कोई नौकरी
दस से पाँच की
और सीने की फाँकें काटकर
सुबह नाश्ते में खाया करें
ब्रेड बटर के साथ।
कूद ही जाते हैं,
मेरे इस प्रस्ताव पर
बौखला जाती हो तुम
और मेरी आँखों से
दो बूँद खून लेकर
मेरे माथे पर लिख देती हो
मेरा असंवेदनशील होना।
कौनसी रिंगटोन है ये
कि हाथ से कूदकर
धरती पर गिरने को होता है मोबाइल,
ओह!
तुम्हें आया है फ़ोन किसी का,
तुम्हें जल्दी है जाने की
इतनी कि
पिछले मिनट में पाँव रखकर
दौड़ जाना चाहती हो।
छूटते हुए तुम
उस झुनझुने पर
अपनी गुदगुदाती हथेली रखकर
लगभग मेरी ओर मुड़कर
कह ही देती हो
कि बहुत अनरोमांटिक हूँ मैं
और रात अचानक हो जाती है।
[+/-] |
स्त्रियों ने जिन पुरुषों से किया प्रेम |
स्त्रियों ने जिन पुरुषों से किया प्रेम,
जुबान पर मिसरी धरकर
वे पुकारती थी उन्हें
पागल कहकर,
पहले तो तुम्हें भी
भला लगता था ना
प्रेम में उन्माद?
मोहल्ले में मौत हो किसी की,
सिलेंडर फटे रसोई में,
कोई छू दे दस हज़ार वोल्ट का तार
या कोई गंगा में डूब मरे,
मच जाए चीख-पुकार
और मैं किसी के आँगन में,
छत पर
या गली में ही
रुदालियों के कंधों पर सिर रखकर
घंटों तक रोता रहूँ।
मुँहअंधेरे
मुझे एक सपना
अक्सर दीखता है
कि धक्के देकर
मुझे घर से बाहर निकाल रहे हैं
माँ-बाबा।
माँ को डर है शायद
कि धर्म बदलकर
जल्दी ही बन जाऊंगा मैं मुसलमान,
बाबा को लगता है शायद
कि फुटपाथ पर नाक पोंछती हुई
कोई लड़की
मैंने छिपा रखी है ज़मीन में
जिसे किसी दिन
ब्याहकर ले आऊँगा अदालत से।
कभी-कभी प्यार से
माँ कहती है
बाबा को पागल,
मुझे नहीं कहती।
तुम्हारे मेरे घर में कोई मौत हो तो
मातम बनाने के बहाने
मिलेंगे,
देर तक रोएँगे
गले मिलकर।
कोई नहीं रोकेगा तब।
जल्दी करो कि
किसी दिन अचानक
चाय पीते-पीते
मैं फेंकने लगूंगा उठा-उठाकर
किताबें, पेन, कप, ज़िन्दग़ी,
बकने लगूंगा गालियाँ,
बुक्का फाड़कर रोने लगूंगा,
पागल हो जाऊँगा।
देख लेना चाहे।
[+/-] |
बहुत बेहतर होता आम तोड़ना, बाँसुरी बजाना, कविताएँ लिखना |
उन्हें पागलपन की हद तक
पसंद थे
आयत, त्रिभुज और गोले,
और यही था उनका आग्रह,
पूर्वाग्रह,
प्रलोभन
या षड्यंत्र
कि मैं भी करुं उन्हें पसन्द
और सौभाग्यवश
मुझे नहीं पसन्द थे वे निर्जीव आकार
जिनमें से गंध आती थी हमेशा
मन्दिर में बैठी
अहंकारी नैन-नक्श वाली
गोरी मूर्तियों की।
अहा! दुर्भाग्य...
हमारे मास्टरों के चेहरे
इतने सपाट थे
कि उन्होंने नहीं किया होगा कभी प्रेम,
इस पर लगाई जा सकती थी
हज़ारों की शर्त।
इसीलिए जब हमें पढ़ाया गया इतिहास
तो पढ़ाए गए साम्राज्य, लड़ाइयाँ और विद्रोह।
इतिहास की निष्ठुर किताबों में
हम तरसते रहे
एक अदद प्रेम-कहानी के लिए।
उन्होंने जब पढ़ाई कविताएँ
तो अपनी यांत्रिकता से
वे दिखने लगते थे इतने कुरूप
कि डरकर हमारा सौन्दर्य-बोध
क्लास छोड़कर
जंगलों में भाग जाता था।
संसार भर में चित्रकला
या हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने वाली कठोर माँएं
स्वेच्छा से इतनी अभागी थी
कि उन्होंने अपने बच्चों को रटवाए
झुर्रियों वाले पहाड़े,
बेटियों को होमसाइंस,
बेटों को फ़िजिक्स।
बेजान, बेतुके नामों की बजाय
काश हमारे बोटनी के टीचर ने
सुझाया होता
प्रेमिका के बालों पर लगाए जा सकने वाले
फूल का नाम,
काश मुझे दिया जाए एक अवसर
कि भूल सकूं
लम्ब, कर्ण, आधार
और पाइथागोरस थ्योरम।
काश कि माँ
मुझसे नाराज़ होने की
कीमत लिए बिना ही
अब भी समझ पाए
कि इंजीनियर बनने से बहुत बेहतर होता
आम तोड़ना,
बाँसुरी बजाना,
कविताएँ लिखना
या बस सपने देखते रहना भी।
[+/-] |
अधूरा नहीं छोड़ा करते पहला चुम्बन |
अधूरा नहीं छोड़ा करते
पहला चुम्बन,
जब विद्रोह करती हों,
फड़फड़ाती हों
निर्दोष होठों की बाजुएँ
नहीं बना करते अंग्रेज़,
नहीं कुचला करते उनकी इच्छाएँ
सन सत्तावन के गदर की तरह।
ऊपर पंखा चलता है।
आओ नीचे हम
रजनीगन्धा के फूलों से
छुरियाँ बनाकर
काट डालें अपने चेहरे,
तुम मेरा
मैं तुम्हारा
या तुम मेरा,
मैं अपना!
सिपाहियों को मिला है आदेश
भीड़ को घेरने का,
बेचारे सिपाहियों ने चला दी हैं
बेचारी छुट्टी भीड़ पर
बेचारी छोटी छोटी गोलियाँ।
फिर मत कहना कि
अपनी मृत्यु का दिन
मालूम होते हुए भी
मैंने नहीं किया था
तुम्हें सावधान कि
तुम अपना खिलंदड़पना छोड़कर
सोच सको
भावुक होने के विकल्प के बारे में भी।
क्या पता कि
अधूरे छूटे हुए पहले चुम्बन
बन जाते हों आखिरी
इसलिए मन न हो, तो भी
अधूरा नहीं छोड़ा करते
किसी का पहला चुम्बन।
नब्बे साल बाद सच होते हैं
मंगल पाण्डे के शाप।
[+/-] |
बोधिसत्व की एक स्त्री कविता |
बोधिसत्व जी की कविताएँ मुझे काफ़ी पसन्द हैं। कल उनसे भी अपने ब्लॉग पर कोई नई कविता छापने की गुहार लगाई है। वे जब तक मेरी गुहार सुनें, तब तक मेरा मन किया कि मैं अपनी पसंद की उनकी कोई कविता छाप दूं। (हालांकि आइडिया नंदिनी जी का था, लेकिन मेरा चुराने का मन किया तो साभार चुरा रहा हूं, आशा है नंदिनी जी को कोई आपत्ति नहीं होगी। )
मैंने उनकी 'हम जो नदियों का संगम हैं' पढ़ी है। बोधिसत्व जी ने माँ, पिता, दीदी सब रिश्तों पर बहुत अच्छा लिखा है। स्त्री पर यह कविता उसी किताब में 'श्रंगारदान में धूल' नाम से है। मेरे विचार से नाम कुछ और भी रखा जा सकता था। लेकिन जो भी है, कविता बहुत गहरी है। मैं कई बार पढ़ चुका हूं। बोधिसत्व की कविता जाननी हो तो आप भी इस कविता को जरूर पढ़ें।
और हाँ, हाथ जोड़ कर अनुरोध है कि इसे किसी महत्वाकांक्षी युवा कवि/ब्लॉगर की कोई महत्वाकांक्षी चाल न समझा जाए। मेरा मन सिर्फ कविता पढ़ने का था तो सोचा कि क्यों न सबको पढ़वा दी जाए।
श्रंगारदान में धूल
1
वह स्त्री अपने घर का रास्ता
भूल गई थी।
वह चाहती थी कि
बच्चों और सूर्य के जागने के पहले
वह चूल्हे तक पहुँच जाए।
पर वह घर का रास्ता
भूली ही रही।
उसे घर तक
पहुँचने के लिए
वैतरणी पार करनी थी
उसे पता था
बगैर घर के स्त्रियाँ
जंगल होती हैं,
मेघ, बसंत, फूल होती हैं
नदी होती हैं, आँख होती हैं
यौवन होती हैं
और उसे पता था
बगैर घर के स्त्रियाँ
कुछ भी नहीं होतीं।
घर तक पहुँचने के लिए
वह वैतरणी में नाव चलाना चाहती थी
वह नाव की खोज में
जंगल तक गई
जहाँ पत्ते झर रहे थे
और एक दूसरी स्त्री
(हिरनी की तरह घायल थी जो)
अपने शिकारी के लिए रो रही थी।
वह स्त्री जंगल में थी
तभी अपनी आँखों में रक्तस्राव धारण किए
सूर्य उगा
उस स्त्री के बच्चे
शिकार करने चले गए
और वह जंगल में
हिरनी की तरह रहने लगी।
2
वह स्त्री जहाँ रहती थी
वहाँ स्त्रियों को
अपना मार्ग जानने और चुनने का
हक नहीं था।
दरअसल वहाँ लोग मानते थे कि
स्त्रियाँ अपना मार्ग
तय नहीं कर सकतीं
क्योंकि उन्हें अपने रास्ते से अधिक
अपने गर्भ का ख़याल रहता है।
वह स्त्री जहाँ रहती थी
वहाँ स्त्रियों का कहीं
कोई घर नहीं होता था
बल्कि स्त्रियाँ ही घर होती थीं
जिनमें रहते थे लोग
उनसे निर्लिप्त
और वह थी कि
घर की खोज में थी लगातार।
वह घर खोजती थी
और किले में पहुँच जाती थी
जहाँ असंख्य स्त्रियाँ थीं
अपने अनुपम दुखों पर मोहित
अपनी संरचना पर प्रसन्न
अपने बादलों से हीन
अपने घर से परे।
वह स्त्री चाँद को
नदी में झाँककर और सूर्य को
खेत में से देखना चाहती थी
पर उसे समझाया गया कि
चाँद आँगन से और सूर्य
घूंघट से अच्छा लगता है।
3
उस स्त्री के बच्चों ने उसे बहुत खोजा
उन्होंने नदियाँ खंगाल डालीं
खेतों को रौंद डाला
घरों को युद्ध-भूमि बना दिया
और कवियों ने उसे
रास्ता दिखाने के लिए कविताएँ लिखीं
गलदश्रु भावुकता से भरपूर
वे उसके विलाप और हँसी में
अंतर करते रहे।
4
बाद में
उस स्त्री के घर की धूल को
किसी स्त्री ने
अपने श्रंगारदान में रख लिया।
[+/-] |
इससे पहले कि शराब पीना खो दे अपनी अश्लीलता |
इससे पहले कि
शराब पीना
खो दे अपनी अश्लीलता
और आम हो जाए
क्रिकेट खेलने की तरह,
उसे लगने लगा है कि
उसे शुरु कर देनी चाहिए शराब।
उसने चुन ली है नीली दीवार,
उस पर लेटकर
वह खेल रहा है ‘चिड़िया उड़’,
उसे प्रेम हो गया है चिड़िया से,
वह खेल रहा है
’मत उड़ चिड़िया’,
चिड़िया को पसंद है
लाल तिनकों का घोंसला
जैसे उसे पसन्द हैं कविताएँ
या उसके पिता को पसन्द है
चाय सुड़कते हुए अख़बार पढ़ना।
यह हज़ारवीं बार है
जब वह लालकिले की एक दीवार पर
दिल बनाकर
पेंसिल से कुरेद आया है
तीर का निशान।
एक लड़की ने फूल से कहा है
कि हँस रही है वह,
फूल मुरझा गया है।
ट्रेन में हो रही है तलाशी
लालकिले पर हमला करने वाले
आतंकवादियों के लिए,
उसके पास नहीं है टिकट,
वह रो रहा है,
डिब्बे में लगा है एक शामियाना
लाल रंग का,
चिड़िया को पसंद था
लाल कालीन,
बंजी जंपिंग
और रॉक क्लाइम्बिंग।
पहाड़ों पर मुट्ठियाँ धँसाकर चढ़ती
चिड़िया के लिए
रो रहा है वह,
किसी ने आकर उसकी आँख में
रख दी है लड़की,
चिड़िया का पंख
और आँख भर तौलिये।
उसके पिता कल परसों में
दायर करने वाले हैं
ज़िला कोर्ट में अपील
कि प्रतिबन्ध लगा दिया जाए
नीले दुख वाली कविताओं पर।
और इससे पहले कि
वह अपने कबाड़ वाले कमरे में
किसी रात गिरफ़्तार कर लिया जाए
अश्लील उदास कविताएँ लिखते हुए,
ज़िन्दा रहने की आखिरी संभावना
को अवसर देने के लिए
उसे लगने लगा है कि
उसे जल्दी शुरु कर देनी चाहिए शराब।
[+/-] |
श्रीनगर की एक मस्ज़िद में मैं पढ़ना चाह रहा हूं गायत्री-मंत्र |
श्रीनगर की एक मस्ज़िद में
मैं पढ़ना चाह रहा हूं
गायत्री-मंत्र
जोर जोर से चिल्लाकर।
रात बहुत हो गई है,
खड़खड़ा रहा है
किसी का टाइपराइटर,
आसमान में गूँज रहे हैं
लाल, नीले, पीले सायरन
और टाइपराइटर की उंगलियाँ
खड़खड़ा नहीं रही,
कूक रही हैं,
मैं अपने कान उतारकर
चिपका देता हूं उस खिड़की पर
जिसके दूसरी तरफ़
एक माँ ने मीठा दूध लाकर दिया है
टाइपराइटर वाले लड़के को,
रुक गई हैं उंगलियाँ,
कोयलें प्यार कर रही हैं
फ़ुर्सत पाकर,
और मैं बेकन्ना होकर
जब उस गली की एक अपाहिज दुकान पर
माँगता हूं कश्मीरी चाय
तो चाँद की लौ
लपलपाकर बुझने को होती है,
मुझ पर तन जाती हैं संगीनें,
मुझे नहीं दी जाती चाय
क्योंकि उन्होंने कह दिया है
कि मुझे नहीं दी जानी चाहिए।
छप छप छपाक
कोई कूदता है
एक गहरी चोटी से
ऊँची खाई में,
उसके पीछे भाग रहे थे
हरे पत्ते पहने हुए
पहाड़ी जामुनों के रस से सने
चार फौज़ी।
मेरा मन है कि
मुझे देखना है फैशन टी.वी.,
उसे देखते हुए
मुझे बुदबुदाना है गायत्री मंत्र,
मुझे पीनी है
चार कप कश्मीरी चाय,
मुझे रात के बारह बजे
पिंक फ़्लॉयड के ‘हाई होप्स’ को
लाउड स्पीकर पर गाना है
और लावारिस होकर
स्टेशन की बेंच पर
सुबह दस बजे तक सोना है,
मुझे जूते पहनकर करनी है
मन्दिर में पूजा,
लेटकर देर तक पढ़नी है
अपने भगवान की नमाज़,
मेरा मन है कि
देवदार के पत्तों पर
अपनी खोई हुई प्रेमिका के नाम
एक कविता लिखकर
डल में बहा दूं,
मेरा मन है कि
दिल्ली के किसी अख़बार के
शिकायती कॉलम के लिए
छोटी सी चिट्ठी भेजूं
कि मेरी दीवार के उधर वाले घर में
पिछले हफ़्ते किए हैं
उन्हीं हरे-जामुनी फ़ौजियों ने
चार निर्मम बलात्कार।
मैं नहीं जानता
कि कहाँ है दिल्ली,
जानना भी नहीं है मुझे,
मैं बस अपना शहर
अपनी तितलियों की चोंच में छिपाकर
कहीं दूर भाग जाना चाहता हूं।
भाग रहा हूं मैं
निहत्था,
छप छप छपाक...
मेरे पीछे भाग रहे थे
हरे पत्ते, पहाड़ी जामुनों वाले
चार फ़ौजी।
मेरे कान भीग गए हैं
रात की बारिश में,
वह लड़का ऊँघने लगा है,
उसकी माँ लाई है
कश्मीरी पत्तियों की चाय,
मेरे कान धड़क रहे हैं,
मेरे कान मुस्कुरा रहे हैं,
खिड़की के उस पार
अभी कूक रहा है टाइपराइटर
मेरे शहर में।
[+/-] |
बालकनी की पीठ से पीठ टिकाकर नाखून काटती हुई लड़की के लिए |
जिन जिनको ऐतराज़ है
सुबह देर से जगने पर
और जो सूरज चढ़ने से पहले ही
बेवक़्त झिंझोड़कर जगाते हैं किसी को,
उन सबमें आकर बैठ गई है मेरी माँ
उतनी ही सहजता से
जैसे तुम नाखून काटती हुई अक्सर
बालकनी की पीठ से
अपनी पीठ टिकाकर बैठ जाती हो।
तुम्हारे कमरे में खुलती है ना
बालकनी की पीठ?
जैसे मेरे कमरे में खुलता है
जलती अंगीठी का दरवाज़ा।
किसी ने भरी हुई दवात
उड़ेल दी है
तुम्हारी स्कर्ट पर,
तुम्हारा रोना
मेरी शर्ट की जेब से
भीतर को रिस रहा है,
मैंने अंगीठी में फूंक दिया है
खाली दवात के हाथ का चेहरा,
कोई जल रहा है,
मर गई है दवात।
सब देख रहे हैं ‘चन्द्रकांता’।
कोई है दरवाज़े पर,
तुम हो,
तुम माँगती हो चीनी।
तुम माँगती हो चीनी मुझसे
गोल कटोरी देकर,
मैं रख देता हूं उसमें
गोल चाँद की उपमा,
तुम्हारे हाथ की रोटियों के
गोल-गोल सपने,
गोल जंगल में हमारी
गोल झोंपड़ी...
नाराज़ हो जाती हो तुम,
ज़िद करने लगती हो
कि तुम्हें जाना है चीनी लेकर जल्दी।
नहीं,
गोल जंगल में मत रहो पर
तुम मत जाओ।
गोलकुंडा सही, गोलबाज़ार सही, गोलपथ सही,
गोलछा सिनेमा सही...
तुम लौटने लगती हो तेजी से,
मत जाओ,
रुको तुम,
तुम जो भी कहो,
गोल नर्क, गोल कुँआ, गोल मौत,
कुछ भी दो, मगर जाओ नहीं।
तुम बाहर नाली में
फेंक जाती हो
गोल चाँद, गोल रोटियाँ....
सब देख रहे हैं ‘चन्द्रकांता’।
सुना है,
कल पड़ोस में किसी ने कर ली
आत्महत्या।
जानती हो,
जो भी मर रहे हैं
या मरने वाले हैं जल्दी
आज कल परसों में,
दीमकों की तरह
सबको खाए जा रही है
छोड़कर गई प्रेमिकाएँ।
दुनिया के बाकी दुख, दर्द
बकवास हैं,
बहाने हैं सब।
[+/-] |
परेशान है ज़माना |
वे, जो चाँद पर रहते थे
या मंगल, बृहस्पति, शनि पर कहीं
या धरती की गहरी कोख में
बसाए हुए थे अपने शहर
या तब थे धरती पर
जब सुनते थे कि
सब ग्रह और सूरज घूमते हैं
उसके चारों ओर।
वे, जो दिन रात नहीं घूम पाते
अपनी
या किसी और की धुरियों पर।
वे,
जो बहुत अतीत के हैं
या किसी अनिश्चित भविष्य के
लेकिन वर्तमान के नहीं हैं;
वे,
जिन्हें चिंघाड़ना आता है,
दहाड़ना आता है,
आता है
रात भर
कुत्तों के साथ विलाप करना
या आती हैं
किसी नई सदी की
मूक भाषाएं
लेकिन बोलना नहीं आता;
वे,
जिन्हें पसन्द नहीं हैं आवरण।
आदिम लोगों की तरह
या आने वाली पीढ़ियों की तरह
जो थूकते हैं
शरीर ढकने की परम्पराओं पर;
वे,
जो सनकी, बीमार, सिरफिरे हैं,
जो नियम ही नहीं समझ पाते
कि उन्हें मानें
या तोड़ सकें;
वे,
जो इतने लाइलाज़ हैं
कि अब तरस भी नहीं आता उन पर,
वे, जो तटस्थ नहीं हैं,
न ही हैं
किसी पक्ष में भी;
वे,
जो अड़ियल, खड़ूस, ज़िद्दी, पागल हैं
और रात रात भर
आसमान को गालियाँ बकते हैं,
वे हम सब
बेवकूफ़, बदतमीज़
या तो पहले के हैं
या कभी बाद के
लेकिन आज के नहीं हैं।
हम बदसूरत
जो गलत वक़्त पर
गलत ज़गह आ धमके हैं,
टाट पर लगे पैबन्द हैं।
हम ढके हुए हैं
आज के सारे सुराख
सिर्फ़ अपने दम पर
लेकिन मनहूस हैं,
इतना चिल्लाते हैं
कि छिपाए नहीं छिपते।
परेशान है ज़माना।
[+/-] |
IIT वाले...भाग-2 |
पिछली पोस्ट को बहुत प्रशंसा मिली तो मुझे भी लगा कि अभी दुनिया में कुछ लोग हैं, जो आई आई टी के बारे में सुनना चाहते हैं। ये जब से इंडिया शाइन कर रहा है, तब से हमारे यहाँ के लोग जागरुक हुए हैं, नहीं तो कुछ साल पहले तक छोटे कस्बों में तो लोगों के लिए I I T और I T I बराबर ही था।
दो साल की हिला देने वाली मेहनत के बाद जब मेरा सेलेक्शन हुआ तो एक दोस्त की माताजी ने बहुत मासूमियत से पूछा – बेटा, इतनी दूर रुड़की में पढ़ने क्यों जा रहा है? यहाँ जयपुर- वैपुर में एडमिशन नहीं मिल रहा था क्या?
मैंने भी बहस नहीं की। कह दिया कि नहीं, मैं कहाँ आपके सुपुत्र जितना होनहार हो सकता हूं?
खैर, अब जब इज्जत मिलती है तो बहुत सारी बातें आसानी से भूल गया हूं। जो मेहनत के बावज़ूद यहाँ नहीं आ पाए होंगे, वे बहुत कुछ नहीं भूले होंगे।
IITians की एक खासियत है- अपने brand name को भुनाते बहुत अच्छे से हैं। जहाँ कहीं भी आर्थिक, सामाजिक या ‘भावात्मक’ लाभ मिल सकते हैं, अपने brand का फायदा उठाने से चूकते नहीं।
जैसे हमारे कैम्पस के आस पास जो रैस्टोरेंट हैं, IITians को खाने में कुछ छूट देते हैं, तो हम कभी कहना नहीं भूलते कि IIT वाला बिल लाना।
जैसे हम ट्रेन में सफ़र कर रहे हों और आसपास कुछ ‘अच्छी’ लड़कियाँ हों तो हम आपस में ऐसी चर्चा जरूर छेड़ देते हैं, जिसमें इस महान संस्थान का नाम बार बार आए। वैसे ज्यादातर लोग सफ़र के दौरान बड़े बड़े अक्षरों में IIT लिखी हुई टी शर्ट हमेशा पहनते हैं। इससे कोई न कोई बेचारा पूछ ही बैठता है कि IIT में हो क्या? और फिर सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, मस्तक ऊँचा हो जाता है, होठों पर humble सी मुस्कुराहट आ जाती है इत्यादि इत्यादि...
ऊपर अच्छी लड़कियों की बात छिड़ी तो सोच रहा हूं कि हज़ारों लड़कों के दिल का दर्द कह ही दूं। हम सब सोचते हैं कि अब IIT में लड़कियों के लिए आरक्षण हो ही जाना चाहिए। बचपन से हिन्दी फ़िल्में देख देख के लगता था कि कॉलेज में ‘खम्भे जैसी खड़ी है’ टाइप गीत गाने का खूब माहौल होगा, लेकिन यहाँ तो सिर्फ़ खम्भों के बीच में बिजली का transmission कैसे होता है, इसी की बातें चलती रहीं। IIT में लड़कियों की घोर कमी है। मैं इस पोस्ट के माध्यम से सरकार तक अपनी यह व्यथा भी पहुँचाना चाहता हूं। यदि कोई पावर वाला व्यक्ति अथवा समाज-सुधारक अथवा नारी उत्थान कार्यकर्त्ता इसे पढ़ने की भूल करे तो इस दिशा में कुछ कदम जरूर उठाए ;)
‘चोखेरबाली’ वाले भी चाहें, तो कुछ मदद कर सकते हैं।
अपनी तो जैसे कटी, सो कटी, आने वाली पीढ़ी को युवावस्था में वानप्रस्थ की feeling ना आए।
खैर, मज़ाक की बात मज़ाक में उड़ा दीजिए। हम सब इस त्रासदी से चाहे कितने भी दुखी हों, किसी भी तरह के आरक्षण के सख्त खिलाफ़ हैं। इस मुद्दे पर इसे ही हमारा अंतिम बयान समझा जाए। हाँ, वह बात अलग है कि पिछले कुछ समय में OBC को आरक्षण दिए जाने के बाद देश भर में जो विरोध हुआ, उसमें IIT वाले सबसे कम सक्रिय रहे। इसका कारण मैं भी नहीं समझ पाया, लेकिन यह दुखद अवश्य था। दुर्भाग्यवश शायद हम उस स्तर पर पहुँच गए हैं, जहाँ हमें घटिया राजनीति, सुस्त प्रशासन और सोई हुई जनता, किसी से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अपने जीवन में यहाँ तक पहुंचने के लिए किए गए संघर्ष और मेहनत ने जाने अनजाने में हममें से अधिकांश को स्वकेन्द्रित और असंवेदनशील बना दिया है।यहाँ का पारदर्शी सिस्टम हमें भारत को सुधारने की नहीं, अमेरिकन ढंग से जीने की प्रेरणा देता है और हम बाहर के भ्रष्ट, अव्यवस्थित भारत में स्वयं को असहज महसूस करने लगते हैं। आश्चर्य नहीं कि ग्रेजुएट होने के बाद आई आई टी वाले अमेरिका की ओर आकर्षित क्यों होते हैं?
यह दुखद है, किंतु सत्य है।
[+/-] |
मेरा 'about me' भी चुरा लिया गया |
यूं तो मैं इस तरह की बातों पर कभी पोस्ट नहीं लिखता, लेकिन अभिव्यक्ति की चोरी भी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। मेरी कविताओं को ऑर्कुट पे बहुत से लोगों ने अपने प्रोफ़ाइल में बहुत अधिकार के साथ अपनी कहकर टाँक लिया तो मैंने ध्यान नहीं दिया, न ही कुछ कहा। वही ईसा मसीह वाली बात याद आती रही कि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं, इसलिए इन्हें माफ़ कर दो। लेकिन कोई कब तक माफ़ करे?
मैं समझता था कि ब्लॉग विशेषकर हिन्दी ब्लॉग वही लिखते हैं, जिन्हें किसी भी तरह से अपने को अभिव्यक्त करने का माध्यम चाहिए होता है। मगर अभी गिरिराज जोशी जी ने बताया कि तुम्हारा जो पहले orkut पर about me था, वो किसी सज्जन(जिन्होंने अब अपनी भूल स्वीकार कर उसे हटा लिया है, इसलिए उनका नाम भी यहाँ से हटा दिया गया है) ने अपने ब्लॉग पर सबसे नीचे 'मेरे बारे में' कहकर बहुत शान से लगा रखा है। वैसे मैंने उन्हें भी लिख दिया है, मगर मैं अब तक आहत हूं कि क्या चुराकर अपने नाम से लिखते समय ज़रा भी शर्म अपने आप से नहीं आती?
हुज़ूर, आप अपनी 'छोटी सी दुनिया' में लड़की बनाना, प्रेगनेंट करना जैसी हिट्स बढ़ाने वाली चाहे कितनी भी पोस्ट लिखें और जिस तरह का नाम आप चाहते हैं, कमाएँ । मगर अपने बारे में तो अपने आप लिखें। मैं आशा करता हूं कि इस पोस्ट के बाद पश्चातापस्वरूप या फिर बात फैलने के परिणामस्वरूप वे अपना about me खुद लिखेंगे।
सोच रहा था कि कुछ अच्छा लिखूंगा, लेकिन ये फालतू की बात बीच में आ गई। अच्छा फिर कभी....
[+/-] |
नन्हे नन्हे ख़्वाब |
सुना है
अरब के रेगिस्तानों में
नन्हे बच्चों को
ऊँटों पर बाँधकर
दौड़ाया जाता है।
यहाँ
हमारे यहाँ
सीलन भरी दिल की गलियों में
एक अनाथ
नन्हा सा ख़्वाब
अकेला दौड़ता है
जिसकी माँ
किसी और की माँ हो गई है अब
और किसी और की माँएं
किसी की माँएं नहीं होतीं,
खलनायिकाएं होती हैं।
उस ख़्वाब के पैरों में
छाले हैं
ऐसे, जैसे जन्म से उगे हों
तलवों पर।
उसे प्यास लगती है
तो आँखों की ओस
पी लेता है
और भूख लगती है
तो भी
पेट भर रो लेता है।
वह दौड़ता है अकेला
अपने कदमों में गूँजते हुए
और आहटें सुनकर
सब आ खड़े होते हैं
अपने दरवाजों, फाटकों पर।
सब गूंगे हैं
और बहुत हँसते हैं।
उस सीली गली के मोड़ पर
एक और वैसा ही
उज्जड़ सा अनाथ सपना
उसके साथ हो लेता है,
फिर गूंजते हैं दो रास्ते
चार पाँवों में।
आहटें बढ़ती हैं,
भूख भी
प्यास भी
और सब खलनायिकाएं सो गई हैं
भीतर वाले बन्द कमरों में
कुंडी चढ़ाकर।
निकल आते हैं
बहुत सारे बच्चे
घरों से अनाथ बनकर,
बोते हुए
अपनी एड़ियों में छाले।
ये नन्हे नन्हे ख़्वाब
बहुत रोते हैं
मगर बेशर्म
दौड़ते रहते हैं
चुप, उदास, नम सी गलियों में।
सुनते हैं
अरब में कहीं
एक ख़्वाब कभी
दौड़ते दौड़ते
ख़ुदा बन गया था।
[+/-] |
चोरी का 'प्रीतम' |
1
जब वी मेट
ये इश्क़ हाय
Anggun’s frech song - Etre Una Femme (2004)
2
जब वी मेट
मौजां ही मौजां
‘Simarik’ by tarkan
3
जब वी मेट
आओ मीलों चलें
Peterpan’s song- DI Belakangku
4
रेस
पहली नज़र
2005 के एक हिट कोरियन सीरियल ‘delightful girl choon hyang’ का एक गीत
5
रेस
ज़रा ज़रा टच मी
Chinese song- deep within the bamboo groove by lee hom wang
(दम ददम दम भी ज्यों का त्यों उठाया गया J )
6
लाइफ़ इन ए मैट्रो
ओ मेरी जान
Amr diab’s song- ba’ed el layali(2002)
7
लाइफ़ इन ए मैट्रो
बातें कुछ अनकही
2005 के प्रसिद्ध कोरियन धारावाहिक ‘my name is kim sam soon’ का गीत ‘Ah reum dah’
8
गैंगस्टर
तू ही मेरी शब है
Oliver Shanti & Friends - Sacral Nirvana + wheat circles
9
गैंगस्टर
लम्हा लम्हा
वारिस बेग(1998) का गाना ‘कल शब देखा मैंने’
10
गैंगस्टर
भीगी भीगी
90 के दशक के बंगाली गीत ‘पृथिबा ता नाकि’ से ज्यों का त्यों बोल सहित
11
धूम
धूम मचा ले
Jesse cook’s ‘mario takes a walk’ (1998)
12
धूम
शिकदुम..कोई नहीं है कमरे में
सिकदिम- tarkan
13
वो लम्हे
चल चलें अपने घर
‘a world of our own’ by the band seekers(1965)
Lyrics भी बिल्कुल वही
14
वो लम्हे
या अली
Guitara’s ‘ya ghali’
15
वो लम्हे
क्या मुझे प्यार है
Peterpan’s tak bisakah
16
भूलभुलैया
हरे कृष्णा हरे राम
कोरियन ग्रुप JTL की 2001 में आई एलबम enter the dragon का गीत ‘my lecon’
17
प्यार के साइड इफैक्ट्स
पाप्पे, प्यार करके पछताया
पंजाबी लोकगायक आलम लोहार के गीत ‘मैं व्याह करके पछताया’ से प्रेरित
18
प्यार के साइड इफैक्ट्स
जाने क्या चाहे मन बावरा
हादिक़ा कियानी के एलबम रंग (2003) का गीत ‘माही’
19
क्या लव स्टोरी है
I miss u every day
KARIENA EID-ALATOUL
20
हैटट्रिक
विकेट बचा
Harry Belafonte -Man smart(Woman smarter)
21
भागमभाग
प्यार का सिग्नल
Superblue’s signal of lara
22
अपना सपना मनीमनी
दिल में बजी गिटार
Miami Band's 'Sheloha shela'
23
गरम मसाला
दिल समन्दर
Kuzu kuzu-tarkan
24
स्पीड
तीखी तीखी
Tarkan's Dudu
25
एक खिलाड़ी एक हसीना
अँखिया ना मार मेरे
Ushar’s yeah
26
भ्रम
जाने क्यूं तन्हा हो गए
मशहूर बंगाली बैण्ड मोहिनेर घोरागुलि के गीत ‘घरे फेरार गान’ से
27
अनकही
एक पल के लिए
ऊपर वाला बंगाली गाना ही खुद ही दूसरी बार कॉपी किया।
28
रकीब
तेरा चेहरा सनम एक रुबाई सी है
Amr diab का allem alby
29
जन्नत
लम्बी जुदाई
आधे बोल रेशमा के गीत लम्बी जुदाई से हैं और संगीत चुराया है
Bronski Beat के 1984 के गाने Smalltown Boy से
30
जन्नत
हाँ तू है
Amar diab का ana ayesh (मैं ज़िन्दा हूं)
31
वो लम्हे
तू जो नहीं है
मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए - मुग़ले आज़म
32
धूम 2
Dhoom Again
Dudu-2 by Tarkan
[+/-] |
महीने के आखिरी दिनों में |
कभी कभी
महीने के आखिरी दिन
ऐसे लगने लगते हैं
जैसे ज़िन्दगी के आखिरी हों।
इधर उधर
अपशकुन से होते हैं,
दुर्घटनाएं अपना होना
जताने लगती हैं।
पुरानी यादें
लपेट लेती हैं अपने ऊपर
नए कवर,
पहले सपने
फिर नींद के घंटे
घटने लगते हैं बेवज़ह।
कोई कुछ माँगता है
और देना चाहो
तो भी
सामान ख़त्म हुआ मिलता है,
कोई नाराज़ होता है
तो जी नहीं करता
मनाने का भी।
प्रतीक्षाएँ मिटने लगती हैं,
उन दिनों
उदासी भी नहीं रहती
आम ज़िन्दगी वाली।
मन करता है
कि किसी सुनसान से शहर के
इकलौते पेड़ के नीचे
दिन भर लेटे रहो।
किताबें, फ़िल्में
नहीं सुहाती उन दिनों।
अपनी ही आदतें
और शौक
अजनबी से लगने लगते हैं।
मन करता है
कि सामने वाले पीपल के
पोस्ट बॉक्स में
एक खत लिखकर छोड़ जाएँ,
नहीं मालूम
कि किसके नाम!
नहीं पता
कि क्या लिखें!
लेकिन कभी कभी
मार्च के आखिरी दिनों में
सचमुच लगता है
जैसे सब कुछ
ख़त्म होने वाला है अचानक,
ज़िन्दगी जैसा।
तुम्हें नहीं लगता?
[+/-] |
IIT वाले.... भाग-1 |
जो लोग इस प्रात:स्मरणीय स्थान के बारे में नहीं जानते, उन्हें बता दूं कि IIT भारत के सात ऐसे तीर्थ स्थल हैं, जिनमें रहना लगभग हर महत्वाकांक्षी किशोर का सपना होता है। ( वैसे इस महत्वाकांक्षी शब्द पर विद्वानों में मतभेद है और जानकारों का कहना है कि जो ऐसे boring सपने देखते हैं, वे ambitious न होकर किताबी कीड़े टाइप के छात्र होते हैं। वे स्कूल में हमेशा क्लास में फर्स्ट आने वाली टाइप के होते हैं और वे अपनी किशोरावस्था में कैरियर के प्रति इतने अतिजागरुक हो जाते हैं कि प्रेम निवेदन करने वाली गुणवती, रूपवती कन्याओं को बेवकूफ़ों की भाँति थोड़ा wait करने के लिए कहते हैं इत्यादि इत्यादि...)
तो जी बंदा IIT रुड़की में B.tech. के आखिरी साल का छात्र है और इस महान तीर्थ स्थल को छोड़ने से पहले IIT और IIT वालों के बारे में कुछ लिखना चाहता है। इससे आपको भी यहाँ के बारे में कुछ idea मिल जाएगा और लेखक को भी थोड़ी संतुष्टि हो जाएगी। एक तरह से यह लेखक का इन बातों को संभाल कर रखने का प्रयास भी माना जा सकता है, जो हो सकता है कि वह कुछ समय बाद याद न रख पाए।
मैं जो लिखूंगा, वे बातें IIT रुड़की के लोगों को देखकर जानी गई बातें होंगी। मेरे ख़याल से तो वे हर IIT के लिए उतनी ही सच होनी चाहिए मगर यदि कोई अंतर पाया जाता है, उसके लिए मैं कतई ज़िम्मेदारी नहीं लूंगा। इस श्रंखला में कुछ नकारात्मक बातें भी आएंगी, सो अन्दर के साथियों से निवेदन है कि भड़कें नहीं। :) आनंद लें।
बहुत से लोग पूछते हैं कि IIT वाले अर्थात IIT के आम students कैसे होते हैं?
कुछ गुण मैं बताता हूं।
1. वे 48 घंटे तक लगातार काम कर सकते हैं बशर्तें उनसे वादा किया जाए कि इससे उनके resume में कुछ ऐसा जुड़ जाएगा कि 2 साल बाद जब वे campus interview में बैठेंगे और वे अमुक अमुक कम्पनी के interview तक पहुंचे तो वे एक सवाल का जवाब (जो यदि पूछा गया) अपने सहपाठियों से extra दे सकते हैं। अर्थात IITians ऐसे जुनूनी लोग होते हैं जो अत्यंत दूरदर्शी होते हैं, मेहनती होते हैं (यह तो सब जानते हैं ;) ....) और इसी extra edge के भूखे होते हैं।
2. वे 48 घंटे तक लगातार सो सकते हैं बशर्तें उनका मन ऐसा करे। :) (बीच में खाने पीने जैसे एवं अन्य आवश्यक कार्य जोड़कर )
3. वे आराम से हफ़्ते में दो बार लगातार चार फ़िल्में देख सकते हैं या उतने ही समय में लगातार 12 घंटे तक कम्प्यूटर पर गेम खेल सकते हैं या उतने ही समय में लगातार 12 घंटे तक अमेरिका की अर्थव्यवस्था, भारत की राजनीति, IIT की लड़कियों ( यह बहुत interesting विषय होगा...इस पर अलग से एक chapter लिखूंगा), अपने अपने शहर की लड़कियों, भारत की लड़कियों और दुनिया की लड़कियों आदि पर चर्चा कर सकते हैं। वैसे इन चर्चाओं के विषय अधिकांशत: राह भटक जाते हैं और censored zone में प्रवेश कर जाते हैं, जिसके बारे में मैं यहाँ नहीं लिख सकता।
4. यह अचम्भे की बात है लेकिन हम IIT वाले हर चीज के बारे में इतना जानते हैं कि घंटों बहस कर सकते हैं। वैसे इस बात पर भी विद्वानों में मतभेद है और कुछ लोग कहते हैं कि जब हम बहस आरम्भ करते हैं तो उस topic पर कुछ नहीं जानते होते और फिर बहस के दौरान हमारा ज्ञान चमत्कारिक तरीके से बढ़ता जाता है। इसका कारण यह बताया जाता है कि हमें अपनी बात पर डटे रहना सिखाया जाता है, चाहे हम सही हों या गलत...।
कौनसी फ़िल्म थी वो....हाँ, याद आया....तारे ज़मीन पर। उसका वो गाना तो आपने सुना ही होगा...ज़मे रहो... :)
आज IITians के नाम पर फिर से सुनिए।
अभी कुछ काम आन पड़ा है, इसलिए इस भाग में इतना ही....
यह बस शुरुआत है। समय समय पर लिखता रहूंगा। आप जाते जाते एक काम कीजिए....नीचे क्लिक कीजिए और अपनी प्रतिक्रिया जरूर लिखते जाइए। वो क्या है ना कि बन्दे को थोड़ी inspiration मिलती रहेगी....
[+/-] |
एक शहर की एक गली में |
एक शहर की एक गली में कोई मेरा रहता था
आज सुना, मातम है वहाँ, कौन मरा, बतलाओ ना
कैसा मौसम, कैसी हवा है, कैसा मर्ज़ है, कौन दवा है
खून टपकता आँखों से, कोई मुझको समझाओ ना
रात थी बेचारी बेसुध, दिन गुमसुम और खामोश रहा
आओ दर्द की रातों में कोई तो आग लगाओ ना
सबकी बातें डूब गईं, सब लफ़्ज, जुबानें राख हुई
मेरे दिल की बात सुनो और अपनी कह जाओ ना
चाँद उतरकर आता था अम्मी की लोरी सुनने को
अब नीम पे अटका रहता है, मेरी माँ को बुलवाओ ना
[+/-] |
पागल-पागल |
एक ज़िद्दी लड़का,
जो देखता था ख़्वाब
और जिसने
पेट को भी दिल बना लिया था,
उसे खिलाई गई जबरन
भूख की रोटियाँ
कि वो अब भूख के मारे
चूसता है अपना अँगूठा,
वह बच्चा हो गया है,
वह पागल हो गया है
और एक समझदार लड़की,
जो नहीं देखती थी ख़्वाब,
फेंकती थी पत्थर
लड़के के सपनों पर,
उसे लकवा मार गया है,
बोलती है
तो देखकर लोग हँसते हैं,
वह बूढ़ी हो गई है,
वह पागल हो गई है,
अब दोनों खेलेंगे
पागल-पागल,
खूब तमाशा होगा,
गोल-गोल काटेंगे चक्कर
और लोग हंसेंगे,
पागल हो जाएँगे,
कि सब खेल रहे हैं,
खेलेंगे पागल-पागल,
आह!
ख़्वाब-ख़्वाब क्यों नहीं खेलता कोई?
[+/-] |
मेरा [V] महान बनाम एकता कपूर! |
ऑर्कुट पर एक कम्युनिटी है- वी हेट एकता कपूर अर्थात ‘हम एकता कपूर से नफ़रत करते हैं’। उसके करीब सत्तर-अस्सी हज़ार सदस्य हैं और कल तक मैं भी उनमें से एक था। कल एक अलग दृष्टिकोण से सोचा और अब मैं एकता कपूर से घृणा नहीं करता। कारण है एक और चैनल- मेरा ‘वी’ महान!
हाँ, यही इस महान चैनल का नया महान सूत्रवाक्य है। चैनल वाले सुबह से शाम तक गला फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि हम महान हैं और आप भी जानते हैं कि कलयुग में सौ बार कहा गया झूठ सच हो ही जाता है। देशभक्ति के इस नारे का एक विदेशी बाज़ारू चैनल बीच पर नाचती बालाओं के द्वि अथवा त्रिअर्थी गानों के बीच बहुत अभिमान के साथ दुरुपयोग कर रहा है और फिर स्क्रीन पर उसी अमेरिकन बेशर्मी और बदतमीजी के अन्दाज़ में लिखा आता है- कृपया mind कीजिए। मतलब है कि आपको जो उखाड़ना है, उखाड़ लीजिए। हम तो आपकी संस्कृति का इसी तरह चीरहरण करते रहेंगे।
आप पूछेंगे कि इन के पास इतना साहस आया कहाँ से? ये आया है स्वयं को डी.जे. कहलवाने वाले ‘दिलजीतों’ और प्रिटी कहलवाने वाली ‘प्रीतियों’ से। आपको खबर हुई हो या न हुई हो, लेकिन इण्डिया और भारत बिल्कुल अलग अलग हो ही चुके हैं। जो भारत में हैं, वे यही ‘वी’ और ‘एम टी वी’ देखकर, अंग्रेज़ी गाने सुनकर, सिडनी शेल्डन के चलताऊ उपन्यास पढ़कर किसी भी कीमत पर इण्डिया का वीज़ा पाना चाहते हैं और जो इण्डिया में हैं, उन्हें भारत से उतनी ही घृणा है, जितनी महानगर में बसे अहंकारी अमीर भाई को अपने कस्बाई गंवार भाई से हो सकती है। कुल मिलाकर इस भारत नाम के देश में जो हैं, वे बेचारे मजबूरी में हैं और जैसे ही मौका मिलेगा, निकल लेंगे।
तभी तो ‘वी’ आज का युवाओं का चैनल है और बात सिर्फ़ एक चैनल की नहीं है, टी.वी. पर यही भोंडा नाच चल रहा है। बच्चों के कार्टून नेटवर्क पर जाओ तो वहाँ अंग्रेज़ी लहजे में हिन्दी बोलती असामान्य आकृतियां मिलती हैं। ऐसे में मुझे पोटली बाबा की, मोगली और सिन्दबाद बहुत याद आते हैं।
अपने ‘वी’ वाले ‘कैम्पस स्टार’ नाम से कोई प्रतियोगिता भी आयोजित करवा रहे हैं और मुझे उसका भी विज्ञापन देखने का सौभाग्य मिला।
उसका नारा है- कौन फाड़ेगा, किसकी फटेगी? अब इसके बाद सरकार यदि टीवी पर निगरानी कमेटी बिठाती है तो मैं भी साथ हूं। यह केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है या हमें वाकई निगरानी की जरूरत है?
अब आप कहेंगे कि इन सबके बीच एकता कपूर कहाँ से आ गई?
मैं मानता हूं कि एकता कपूर के तमाम धारावाहिक विकर्षित करती नाटकीयता, घिसी-पिटी कहानी और मनमर्ज़ी की स्पेलिंग वाले नामों के होते हैं और मैं उन्हें नहीं देख पाता। लेकिन क्या इस दौर में यही काफ़ी नहीं है कि टीवी पर कुछ तो है, जिसके किरदार हिंग्लिश या इंग्लिश की बजाय हिन्दी में बातें करते हैं। उसके धारावाहिकों की सजी संवरी अमीर महिलाएं चाहे कुछ और काम न करती हों, लेकिन संस्कारों और संस्कृति की बातें तो करती हैं। भारतीय त्यौहार तो उन धारावाहिकों में मनाए जाते हैं।
कल तक मैं माँ को उन ‘क’ नाम वाले धारावाहिकों को पसन्द करने पर उलाहना दिया करता था, लेकिन अब लगता है कि मेरी विशुद्ध भारतीय माँ के पास उससे बेहतर कोई विकल्प छोड़ा ही नहीं गया है और ऐसे में मैं एकता कपूर को ह्रदय से धन्यवाद देता हूं कि टीवी पर भारत कहीं तो ज़िन्दा है। आज हमारे पास ‘हम लोग’, ‘तलाश’ और ‘नुक्कड़’ तो नहीं हैं और न ही हम बना पा रहे हैं तो एकता कपूर जो थोड़ा बहुत कर रही हैं, उन्हें तो करने दीजिए।
मैं अब भी उनकी रचनात्मकता को पसन्द नहीं करता, लेकिन अब मैं एकता कपूर से चिढ़ता भी नहीं हूं।
एकता, मैं आपका आभारी हूं। ‘वी’ का कुछ बिगाड़ने की तो शायद हम भारतीयों में कुव्वत नहीं बची।