पहले इस लेख का शीर्षक लिखा था- काला शुक्रवार बनाम राष्ट्रीय शर्म, फिर सोचता रहा और बदल कर यह कर दिया। आखिर आज का ताज़ा सवाल तो यही है न...
तस्लीमा, तुमने माफ़ी क्यों माँगी?
इस प्रश्न को पूछते ही खुद पर हँसने का मन भी करता है। मुझ पर ऐसी बीतती तो जाने कब का माफ़ी माँग चुका होता, फिर मैं किस मुँह से तस्लीमा नसरीन से बहादुरी की अपेक्षा करता हूँ?
क्या इस देश का कोई लेखक, कोई सृजनकार है, जिसमें इतनी हिम्मत हो? अरे इतनी हिम्मत छोड़िये, क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सारे सुधारक, सारी लेखक बिरादरी और सारे अभिव्यक्ति के रक्षक मर गए हैं, जो आज कोई नहीं बोला। अब तस्लीमा को आप और हमारे जैसे लोगों के बीच ज़िन्दा रहना है, तो माफ़ी तो माँगनी ही पड़ती ना!
जब 'द्विखंडित' पढ़ा था, तब लगा था कि बांग्लादेशी ही इतने असहिष्णु हैं, बांग्लादेशी ही इतने जंगली सभ्यता के पोषक हैं, बांग्लादेशी ही इतने अतार्किक हैं कि एक सच कहने वाली औरत को रहने के लिए पूरे देश में ठौर ही नहीं मिलती।
लेकिन आज विश्वास हो गया कि हिन्दुस्तानी भी कुछ कम नहीं हैं। सब लोग बस गालियाँ दिए जा रहे हैं, उनमें से ज्यादातर को तो यह भी नहीं पता कि 'द्विखंडित' में लिखा क्या है? और कुछ भी लिखा हो, किसे फ़र्क पड़ता है, एक औरत कुछ भी क्यों कहे?
औरत प्रेम पर लिखे- मंजूर है, औरत दुख पर लिखे- मंजूर है, औरत घर परिवार पर लिखे- मंजूर है...
लेकिन औरत सच कैसे लिख सकती है?
उसके सीने में ऐसे सच दफ़न हैं कि अगर कहने लगे तो जाने कितने रिश्तों को मुँह छिपाना पड़ेगा। उसके भीतर इतने घाव हैं कि उसे उनका ज़िक्र करने की इज़ाज़त भी नहीं दी जाती। अगर सब औरतें प्रेरणा पाकर घुटे हुए सचों और जलते हुए घावों को कहने लगीं तो कहाँ मुँह छिपाएंगे सब सफेदपोश भेड़िये?
आखिर शिकायतें क्या हैं?
शिकायत है कि तस्लीमा इस्लाम के ख़िलाफ़ लिखती है। माँग है कि तस्लीमा को ज़िन्दा जला देना चाहिए। तस्लीमा कहती है - मोहम्मद साहब पैगम्बर नहीं थे, पैगम्बर होने का नाटक कर रहे थे। इस्लाम हमेशा से राजनीति का धर्म था, प्रभुत्व के लिए स्थापित किया गया धर्म था।
शिकायत है कि तस्लीमा इस्लाम के ख़िलाफ़ लिखती है। माँग है कि तस्लीमा को ज़िन्दा जला देना चाहिए। तस्लीमा कहती है - मोहम्मद साहब पैगम्बर नहीं थे, पैगम्बर होने का नाटक कर रहे थे। इस्लाम हमेशा से राजनीति का धर्म था, प्रभुत्व के लिए स्थापित किया गया धर्म था।
तस्लीमा शैतानी आयतों के बारें में सवाल करती है, तस्लीमा पैगम्बर के अपनी पुत्रवधू से सम्बन्धों के बारे में सवाल करती है, तस्लीमा कहती है कि बुरके को ख़ुदा का आदेश इसलिए बनाया गया क्योंकि मुहम्मद साहब नहीं चाहते थे कि उनकी खूबसूरत बीवी आयशा को कोई देखे।
मुझे नहीं पता सच क्या है, न ही मैं कहता हूँ कि ये सब सच है या झूठ, लेकिन क्या इस्लाम इतना कमज़ोर धर्म है कि ज़रा से आरोपं से टूट जाएगा? अगर ये गलत है तो लिखो कि क्यों गलत है, भाषण दो कि क्यों गलत है? ये क्या तरीका है कि इक्कीसवीं सदी में जंगल की सभ्यता अपनाई जाएगी और मौत की धमकी देकर तस्लीमाओं से माफ़ी मंगवाई जाएगी।
असल बात तो ये है कि 'द्विखंडित' में इस्लाम और पैगम्बर के बारे में बहुत थोड़ा ही कहा गया है। लोगों को परेशानी ये है कि एक मुस्लिम औरत धर्म पर, औरतों की दयनीय स्थिति पर, सडांध मारते रिश्तों पर, सैक्स पर लिख रही है, और सबसे बड़ा भय है कि बाकी औरतों को भड़का रही है।
अगर सब जाग गईं, तब क्या होगा?
और तस्लीमा, बांग्लादेश की कितनी लड़कियाँ तुम्हें देखकर आज़ादी के सपने देख रही थी। ऐसे में तुमने इस बड़े देश के छोटे लोगों से डरकर माफ़ी क्यों माँग ली? अब वे लड़कियाँ उड़ने के ख़्वाब कैसे सजाएँगी?
कल का शुक्रवार सच में बहुत काला था। इस अज्ञातवास में माफ़ी माँगते हुए कल दिन भर तुम पर क्या बीती होगी, काश ये भी कोई सोचता...
आप क्या कहना चाहेंगे? (Click here if you are not on Facebook)
18 पाठकों का कहना है :
मैं भी तसलीमा के इस कदम से दुखी हूँ...लेकिन वो क्या करती ? वो अकेले हैं आज
भाई मेरे - मै सोचता हूँ कि तसलीमा को समझ आ गया होगा कि अन्धो बहरो के हक में बोलने से बढिया है जिन्दा रहना सुकुन के साथ । बाग्लॉंदेश न सही , कम से कम भारत तो न छिने
मित्र गौरव,
मैने आपकी कविताओं को पढ़ा है और आज लेख को पढ़ रहा हूँ। आप एक अच्छे के साथ साथ साथ एक अच्छे सामाजिक लेखक भी है। बधाई।
आपने कहा था
पहले इस लेख का शीर्षक लिखा था- काला शुक्रवार बनाम राष्ट्रीय शर्म, फिर सोचता रहा और बदल कर यह कर दिया।
काला शुक्रवार बनाम राष्ट्रीय शर्म ही होता तो ठीक रहता। क्यों कल मेरे ब्लाग पर उत्तर होगा।
तस्लीमा को आज नहीं तो कल माफी तो माँगनी ही थी. आखिर सलमान रश्दी, डेनमार्क के कार्टूनिस्ट से तस्लीमा अलग थोड़े ही रह सकती है !! जीना है तो फिर "पीना" पड़ेगा. हालाँकि गलती भी तो इन्ही लोगों की है, एक ऐसे धर्म के ऊपर आक्रमण बोल दिया जिसकी दीवारें बालू की बनी हुई हैं !!
और ऊपर से तुर्रा तो यह कि तस्लीमा जी इतने अनर्थकारी कार्य को अंजाम देकर एक ऐसे देश में रहना चाहती हैं, जिसके प्रधानमंत्री पहले ही "इस देश के संसाधनों पर पहला हक ......." की उद्घोषणा कर चुके हैं. चलो, जब इतना इस काफ़िर को समर्थन मिल गया तो उसे रहने के लिए एक शर्त तो माननी ही पड़ेगी कि आगे से वो हमारे "प्यारे-दुलारों" के किसी भावना से खिलवाड़ नहीं करेगी. मंजूर ना !!
सोचने वाली बात यही है कि दुनिया में लोकतंत्र की हत्या इस कदर है कि कल तसलीमा को खुदकुशी करनी पड़ी! फ़िर हम इस व्यवस्था को ढो क्यों रहे हैं?
bahoot dukh hua aap logo ko
gaurav acha likha aap ne badhai siwkaare.
बहुत अच्छा लेख...बधाई स्वीकार करें...
साथ ही दुख भी हुआ कि इतनी निर्भीक लेखिका को माफी माँगनी पडी...
सच है कि 'सच' हमेशा कडवा ही होता है...
तसलीमा को समाज को आईने में उसी का विकृत चेहरा दिखाने की सज़ा मिल रही है
दिवाकर जी, समस्या धर्म की नहीं है। हर धर्म की दीवारें, उसको मानने वालों ने बालू की ही बना रखी हैं। अगर कोई हिन्दू लेखक अपने धर्म के विषय में ऐसा लिखे, और चाहे कितने भी तर्कों के साथ लिखे, तो उसके साथ भी यही सुलूक होगा।
आखिर हम सब जंगली हैं... !!!
गौरवजी, ऐसी बात नहीं है. इस तरह की समस्या ’सेमेटिक’ सम्प्रदायों में ज्यादा है. चार्वाक ने वेदों के बारे में बहुत ही अनर्गल बातें लिखीं है. आज भी हिन्दू-धर्म पर प्रहार करने वाले कम नहीं हैं. पेरियार ने ’सच्ची रामायण’ लिखी, क्या हो गया उसका?
आपने कहा-अगर कोई हिन्दू लेखक अपने धर्म के विषय में ऐसा लिखे, और चाहे कितने भी तर्कों के साथ लिखे, तो उसके साथ भी यही सुलूक होगा।
क्या ऐसा कोई उदाहरण है, जिसमें तस्लीमा, रश्दी की सी स्थिति से किसी हिन्दू-लेखक को गुजरना पड़ा हो !!(यह मात्र जिज्ञासावश किया गया प्रश्न है)
महोदय ! हम जिस धर्म के अनुयायी हैं, वह ऐसा नहीं है कि किसी एक मुल्ले जैसे की उद्गोषणा पर तलवार उठा ले. हिन्दू-धर्म का वैशिष्ट्य ही है- सहिष्णुता. गलत हो या सही सुनने की क्षमता रखते हैं इसके अनुयायी.
हाँ, आजकल चौतरफा हमलों से जुझ रहे इस धर्म के कतिपय अनुयायी थोड़े उग्र होने लगे हैं, फिर भी इनकी उग्रता किसी अन्य धर्मावलंबी की सहिष्णुता से अधिक ही है.
दिवाकर जी, मैं इसे लिखते समय यह नहीं सोच रहा था कि मैं हिन्दू हूँ।
आपने लिखा- महोदय ! हम जिस धर्म के अनुयायी हैं, वह ऐसा नहीं है कि किसी एक मुल्ले जैसे की उद्गोषणा पर तलवार उठा ले.
इससे लग रहा है कि हम यहाँ स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए विवाद कर रहे हैं। वह मेरा मंतव्य नहीं था और शायद आपका भी नहीं होगा।
हाँ, कट्टरपंथी हर समुदाय और धर्म में हैं। कम ज्यादा का फ़र्क अशिक्षा के कारण ही होता है।
जहाँ तक हिन्दू धर्म के बारे में वैसा लिखने की बात है तो मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि जो बातें तस्लीमा ने मुहम्मद साहब के बारे में कही हैं, वही मैं यदि किसी हिन्दू अवतार (क्योंकि पैगम्बर नहीं हैं हिन्दू धर्म में) के बारे में कहूँ तो मुझे भी नहीं बख़्शा जाएगा।
क्या आपको गोधरा के बाद का उन्मादी गुजरात याद नहीं, जो कुछ नेताओं और असामाजिक तत्वों के बहकावे में आकर तलवार क्या, बड़े बड़े हथियार लेकर घूम रहा था।
मेरा आक्रोश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर है, इस्लाम या हिन्दुत्व पर नहीं। स्वतंत्रता हर जगह भंग की जा रही है।
gaurav bhai toh aap chate kya hain?
agar koi hamri maa bhan par bekar tippani kare toh kya ham chup rahenge?taslima ne jo kiya galat kiya?karodo logo ki aastha judi hain mohammed shab kai sath.
गौरवजी,
आपकी बात- क्या आपको गोधरा के बाद का उन्मादी गुजरात याद नहीं, जो कुछ नेताओं और असामाजिक तत्वों के बहकावे में आकर तलवार क्या, बड़े बड़े हथियार लेकर घूम रहा था।मेरा आक्रोश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर है
क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जुड़ा मुद्दा है? यदि ३००० की भीड़ ५७ कारसेवकों को जिन्दा बोगियों में जलाकर अपनी "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" चाहती है तो माफ कीजिए मैं इससे सहमत नहीं हूँ.
मैंने अपनी पूर्व की टिप्पणी में भी लिखा है- हाँ, आजकल चौतरफा हमलों से जुझ रहे इस धर्म के कतिपय अनुयायी थोड़े उग्र होने लगे हैं, फिर भी इनकी उग्रता किसी अन्य धर्मावलंबी की सहिष्णुता से अधिक ही है.
दूसरी बात आपने गारंटी लेकर कही है कि- जो बातें तस्लीमा ने मुहम्मद साहब के बारे में कही हैं, वही मैं यदि किसी हिन्दू अवतार (क्योंकि पैगम्बर नहीं हैं हिन्दू धर्म में) के बारे में कहूँ तो मुझे भी नहीं बख़्शा जाएगा।
अब यदि कहने के लिए कहना चाहते हैं तो कह डालिए. (वैसे, इस का उत्तर पूर्व की टिप्पणी में समाहित है)
दिवाकर जी, आप पूछ रहे हैं- क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जुड़ा मुद्दा है? यदि ३००० की भीड़ ५७ कारसेवकों को जिन्दा बोगियों में जलाकर अपनी "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" चाहती है तो माफ कीजिए मैं इससे सहमत नहीं हूँ.
नहीं, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। यह मैंने आपकी तलवार उठाने वाली बात पर कहा था। खैर, आप तो मानने को ही तैयार नहीं कि गोधरा के बाद गुजरात में मरने वाले सैंकड़ों लोग बेकसूर थे।
हाँ, गोधरा में रेल में जलने वाले कारसेवक भी उतने ही बेकसूर थे और मैं दोनों घटनाओं को बराबर अमानवीय बताता हूँ। लेकिन ये बताइए कि निर्दोष लोगों से बदला लेना कहाँ का धर्म है, कहाँ का पुरुषार्थ है?
साज़िद भाई, मैं नहीं कह रहा कि जो मोहम्मद साहब का विरोध करे, वह सही है। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत कीमती चीज है। आज तस्लीमा से छिनी है, कल किसी और बात पर मुझसे और आपसे भी छिन सकती है। कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए हम लोगों का इस्तेमाल कर रहे हैं और हम बेवकूफ़ बनकर इस्तेमाल हो रहे हैं।
उम्मीद करता हूँ कि आपने तस्लीमा को पढ़ा होगा।
बताइए कि क्या कहीं तस्लीमा ने आपकी औरतों को गलत कहा है? वह तो सदा से नारी समानता के पक्ष में लड़ी है। मुझे तो उसमें कुछ ग़लत नहीं लगता।
गौरव ,लेख के साथ-साथ तुम्हारी टिप्पणियों पर करीं गई टिप्पणियाँ भी प्रभावी लगी।
बहुत अच्छा लिखा है। तसलीमा के लेखन से मुझे ज्यादा मतलब नहीं है लेकिन मुझे उनके माफ़ी मांगने से दुख हुआ। इससे ज्यादा अफ़सोस यह हुआ कि हिन्दुस्तान में हम लोग उनको इतना सुरक्षित न रख पाये कि वे अपने लिखे पर टिकी रह सकें। लेकिन अब इस सबसे क्या होना? जो वे लिख चुकीं उसी तो सनद रहेगी ही।
"क्या आपको गोधरा के बाद का उन्मादी गुजरात याद नहीं, जो कुछ नेताओं और असामाजिक तत्वों के बहकावे में आकर तलवार क्या, बड़े बड़े हथियार लेकर घूम रहा था।"
Gaurav aap ka in sabdo na mujha personal taur par bahut dukh pahuchaya, kya godhra ka baad gugrat unmadi hua tha? kya godhra hua wo unmad nahi hai? ya kaisi abhiwaqti hai gaurav? kya abhiwaqti ki aajadi ka matlab kisi ak samaj ka karoro logo ki bhavnao ko thas pahuchana hai.
Maaph kijiyaga, per mai kahta hu jitna ya kathmulla galat hai utni hi taslima bhi galat hain. App kisi ko ak dam sa galat kah kar us ma sudhar ki umid nahi kar sakta hain ( Chaha wo kitna hi galat ku na ho.) sudhar ka liya aap ko root lable par kaam karna hota hai.
Is tarah to samaj mai ak aisa jahar bhar jayaga ki hum jungli kahlana layak bhi nahi rahanga.
Waisa mai aap ka lakhan sai bahut prvhawit hoon, aap jo bhi likta hain barbas hi usko padhna ka man karta hai.
आपने लिखा- महोदय ! हम जिस धर्म के अनुयायी हैं, वह ऐसा नहीं है कि किसी एक मुल्ले जैसे की उद्गोषणा पर तलवार उठा ले.
गौरव जी आपने कहा की अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं और मेरा मानना है की ये सब फसाद ही इस बातसे है की हम अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं इस विषय पर मैंने मेरे ब्लॉग पर दो दिन पहले ही विस्तार से लिखा था
गौरव जी आपको दिल से धन्यवाद है केवल इस बात के लिए नहीं की आप ने ये मुद्दा उठाया बल्कि इस बात के लिए भी है की आपने हमारी थोथी सामाजिक व्यस्था पर कुठाराघात किया है
समाज के ठेकेदारों के खिलाफ आवाज उठाने पर नुकसान तो उठाना ही पड़ेगा.
बहुत अच्छा लिखा है आपने ..दुःख तो हुआ परन्तु क्या करतीं वे?मजबूरी में माफी मांगनी पड़ी उन्हें.शर्म तो हमें अपने देश की व्यवस्था पर आनी चाहिए जहाँ हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भाषण देते हैं.
Post a Comment