हम बना रहे हैं
एक शहर,
जिसकी हर दीवार के
उखड़े पलस्तर के ऊपर
हमने पोत दिया है
झूठे उड़नखटोलों का चमकीला पेंट,
जहाँ हमने
दुपहरी को सुबह
और सुबह को आधी रात कह दिया है,
और जिसकी शामों-रातों में
हम अपने आईने तोड़कर
झूमते हैं,
हमने सब ऊंचे पेड़ों पर चढ़कर
चूस लिया है उनका खून
और काट फेंकी हैं
पेड़ों की
या अपनी ही जड़ें,
किस्मत बदलने को
हमने अपने नाम के अक्षर
उलट पलट दिए हैं,
अलग अलग मौकों पर
अपनी पहचान की तरह,
हमने काट फेंकी है
अपनी माँ की जबान बेरहमी से
और अक्सर
कुचलते हैं उस जबान को
अमरीकी जूतों तले
क्योंकि उसकी माँग नहीं है बाज़ार में,
धुंए से काली हुई गलियाँ
फेयर एंड लवली लीपकर
खूबसूरत बना दी गई हैं
और अपनी बेटियों के कपड़े छीनकर
हमने उन्हें
उन गलियों में बेच दिया है,
हमने 'उच्छृंखलता' को
शब्दकोश में 'स्वतंत्रता' लिख दिया है,
मॉल बनाने के लिए
चार झापड़ मारकर
गिरा दी हैं हमने कमजोर सपनों की रेहड़ियां,
आज हम सब आज़ाद हैं,
तोड़ डाली हैं हमने
सब पुरानी 'कंज़र्वेटिव' बेड़ियां,
हमने एक और पीढ़ी के
गीतों पर प्रतिबन्ध लगाकर
उन्हें सिखा दिए हैं
आटे-दाल-तेल के मुहावरे,
हमने एक और पीढ़ी बना दी है
उपनिवेशवाद की,
ग़ुलामी की,
नपुंसक युवाओं की,
नौकरों की।
एक घने कोहरे की सुबह
मेरे मजबूर पिता ने
मेरी मासूम मुट्ठी खोलकर
थमा दिया था एक ऐसा ही शहर,
एक ऐसी ही सुबह
मैं भी अपने निर्दोष बेटे को
सौंप जाऊंगा
खूबसूरत गलियों का
एक नाचता हुआ शहर
वैसा ही...
[+/-] |
विरासत |
[+/-] |
जुनून-2 |
जो पढ़ने वाले जुनून-1 नहीं पढ़ पाए थे, वे उसे यहाँ पढ़ सकते हैं। यह दूसरा जुनून सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि बाद में लिखा गया...बाकी यह जुनून कहीं से भी कम नहीं है...
सवाल नहीं सुनता,
थामे नहीं थमता,
बहुत बेअदब हूं,
ऐसे बढ़ता हूं
कि उम्र बन जाता हूं,
बाँधे नहीं बँधता,
आकाश की छाती पर पाँव धरकर
ऐसे उड़ता हूं
कि अब्र बन जाता हूं,
एक घूंट में पीकर सारी ज़िन्दगी
गंवारों की तरह पोंछता हूं
जोश से सना चेहरा,
ऐसी प्यास हूं
कि सूखा हलक बन जाता हूं,
इतना करीब हूं
कि छूने में नहीं आता,
इतना विशाल हूं
कि फैलकर फलक बन जाता हूं,
खर्च होता हूं
और ख़त्म नहीं होता,
इतना अनंत हूं
कि प्रीत बन जाता हूं,
पाट दी हैं मैंने
हथेलियों की सब रेखाएँ,
इतना विश्वस्त हूं
कि जीत बन जाता हूं,
रात भर जागकर
उनींदे ख़्वाबों को खिलाता हूं
पींग भरती दावतें,
ऐसा रईस हूं
कि शौक बन जाता हूं,
सब पूर्वानुमान झुठलाकर
फाड़ फेंकता हूं इतिहास,
ऐसे चूसता हूं नियति का लहू
कि जोंक बन जाता हूं,
गोद ले लिया है मुझे
जुनून ने,
जुनून ही माँ है,
जुनून ही पिता,
मैं जागता हूं,
भागता हूं,
झूमता हूं,
नाचता हूं
और गिरता हूं ठोकरें खाकर
फिर बार बार
माँ की गोद में -
जुनून की गोद में...
[+/-] |
6 दिसम्बर 1992 : कोई सोए तो कैसे सोए? |
पाँच और छ: दिसम्बर के बीच की रात मैं देर तक सो नहीं पाया। कोई कारण नहीं था, लेकिन बिस्तर पर पड़ा पड़ा देर तक कारणों को तलाशता रहा। अचानक तारीख पर आकर दिमाग की सब कोशिशें थम गईं। छ: दिसम्बर आ गई थी। सब कुछ सामान्य था, सिवा इसके कि पन्द्रह साल पहले इसी दिन ने अगले बहुत दिनों तक हज़ारों बेकसूरों की जान बहुत बेरहमी से ले ली थी। अब ऐसे नरभक्षी दिन मैं सो कैसे पाता? बहुत देर तक 6 दिसम्बर, 1992 ही सोचता रहा।
उसी साल अप्रैल में सत्यजित रे भारतीय फ़िल्मों को अपना सब कुछ थमाकर दूसरी दुनिया की ओर रवाना हो गए थे और यह वह समय था जब हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास की सबसे निरर्थक फ़िल्में बनाई जा रही थीं, मसलन- आज का गुंडाराज, इंसाफ़ की देवी, मैं हूँ गीता, मैं हूँ शेरनी, इंसान बना शैतान, पुलिस और मुजरिम आदि आदि...। कुछ फ़िल्में ठीक ठाक भी थीं जैसे दीवाना, रोज़ा, ख़ुदा गवाह आदि आदि...। ख़ुदा गवाह अमिताभ बच्चन के ऊपर से हीरो का चोला उतारने के शुरुआती कदमों में से थी।
उसी साल एक मधु सप्रे नाम की लड़की मिस इंडिया बनी थी, जिसने बाद में मिलिंद सोमन के साथ निर्वस्त्र होकर और बहुत बाद में बूम(2003) में हमारी सदी के उन्हीं 'ख़ुदा गवाह' वाले महानायक बच्चन साहब के साथ बहुत 'नाम' कमाया।
लेकिन 6 दिसम्बर से इस सब बकवास का क्या लेना देना?
मैं भी क्या क्या सोचने लगता हूँ, क्या क्या कहने लगता हूं?
नहीं, लेना देना है। वह नंगेपन का साल था और सब दिशाओं में हम अपने आवरण उतार रहे थे, नंगे हो रहे थे या हो चुके थे।
उस साल के क्रिकेट विश्व कप में भारत पहले दौर के आठ मैचों में से पाँच हारकर और एक बरसात की मेहरबानी से ड्रॉ करके बाहर हो गया था।
जहाँ भी ग्लैमर था, सब नंगे हो रहे थे तो वो आखिरी महीने का पहला हफ़्ता कैसे बच सकता था?
मैं उस वक़्त क्या कर रहा था? सोचता हूँ....
सर्दियों की सामान्य सी सुबह थी। देश में तब भी इंटरनेट का प्रयोग करने वाले 1000 लोग थे परंतु तब हम राजस्थान के एक छोटे से गाँव में रहते थे, जहाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन अपनी और बिजली की मिलीजुली मर्ज़ी से ख़बरें पहुँचाया करते थे। लेकिन मुझे किसी खबर से क्या फ़र्क पड़ता? मैं तो स्कूल से बचने के बहाने ढूंढ़ता रहता था।
जब अयोध्या में 3 लाख कारसेवक जुटने शुरु हुए होंगे, तब शायद माँ ने मुझे खाने पीने की चीजों के लालच देकर नींद से जगाया होगा। जब आडवाणी और उमा भारती ने उन रामभक्तों को ललकारा होगा, तब शायद मुझे स्कूल के लिए तैयार किया जा रहा होगा। जब रामलला के नारे लगाकर ढाँचे पर पहले वार किए जा रहे होंगे, तब शायद मैं स्कूल की प्रार्थना सभा में खड़ा 'इतनी शक्ति मुझे देना दाता' गा रहा हूंगा। जब सब ध्वस्त किया जा रहा होगा, तब मैं इस टूटे हुए देश की नींव बनने की तैयारी में पहाड़े याद कर रहा हूंगा।
जितना चाहा था, सब तोड़ दिया गया था। आडवाणी कुछ और चाहते तो वो भी तोड़ दिया जाता। अगले बहुत दिनों तक देश भर में हज़ारों लोग मरे, जाने कितने बलात्कार हुए। बांग्लादेश में बेचारे बेकसूर हिन्दू मरे, जिनमें से अधिकांश को पता भी नहीं था कि अयोध्या कहाँ है, आडवाणी कौन है?
बचपन में मेरा एक दोस्त था, मुस्लिम था । उसका नाम शायद 'माजिद' होगा, ऐसा मैं अब अनुमान लगाता हूँ, लेकिन वो अपना नाम हमेशा 'मंजीत' बताया करता था। मैं बड़ा हुआ तो सोचा कि मुस्लिम धर्म में तो ऐसा नाम नहीं रखा जाता। फिर उसे क्या जरूरत थी नाम छिपाने की? या फिर उसका नाम यही था तो उसके पिता ने ऐसा नाम क्यों रखा? उसके भाई का तो कोई ऐसा नाम था ही नहीं, बस सब उसे सोनू-वोनू जैसा कुछ कहकर बुलाते थे।
शायद इस 6 दिसम्बर का ही उन मजबूर से नामों के पीछे कुछ हाथ हो....मैं आज भी यही सोचता हूँ और देर रात तक सो नहीं पाता।
तब से मैं हर दिन अपने भारत को थोड़ा सा जोड़ता हूँ और शाम तक कोई न कोई आडवाणी, बुखारी, मोदी उसे उससे ज्यादा तोड़ चुका होता है। कोई सोए तो कैसे सोए?
[+/-] |
तस्लीमा, तुमने माफ़ी क्यों माँगी? |
शिकायत है कि तस्लीमा इस्लाम के ख़िलाफ़ लिखती है। माँग है कि तस्लीमा को ज़िन्दा जला देना चाहिए। तस्लीमा कहती है - मोहम्मद साहब पैगम्बर नहीं थे, पैगम्बर होने का नाटक कर रहे थे। इस्लाम हमेशा से राजनीति का धर्म था, प्रभुत्व के लिए स्थापित किया गया धर्म था।