हम आज़ाद देश के आज़ाद नागरिक हैं। माँ बचपन में बताती थी। मगर आज़ादी होती क्या है?
क्या बेड़ियों में जकड़े आदमी की बेड़ियाँ तोड़ देने का अर्थ उसे आज़ाद कर देना है? नहीं, मैंने तब ये सवाल कभी नहीं पूछा कि आज़ादी का अर्थ क्या है? मैं तब एक मूर्ख बालक था। लेकिन अब नहीं हूँ...कम से कम बालक तो नहीं रहा, मूर्ख हो सकता हूँ। घर में हवन हो रहा है। मेरा परिवार आर्यसमाजी परिवार है, जिसने मूर्तिपूजा को बहुत पहले छोड़ दिया था। यज्ञ को ईश्वर का रूप मान लेना मुझे तो मूर्तिपूजा से अधिक दूर का विकल्प प्रतीत नहीं होता, लेकिन श्रद्धेय स्वामी दयानन्द सरस्वती ने समाज की बहुत सी कुरीतियों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, इसलिए मैं उनका और आर्यसमाज का आदर करता हूँ।
तो घर में हवन हो रहा है – मैंने सुबह ही माँ से कह दिया था कि मैं ईश्वर में आस्था नहीं रखता, कम से कम वर्तमान में जिन भी रूपों के बारे में मैं जानता हूँ, उनमें से किसी में नहीं। मैं निश्चित नहीं कहता है कि ईश्वर है या नहीं, वह हो भी सकता है, लेकिन मेरे मन में आस्था नहीं जग पाती। माँ के पास मेरी इन फालतू की बातों के लिए समय नहीं था, सो मैंने संक्षेप में कह दिया कि मैं नास्तिक हूँ( हालांकि मैं नहीं जानता कि मेरी मान्यताएँ नास्तिक होने के कितना निकट हैं) – माँ मुझे देखती रहती है और फिर मुझ पर लानतें बरसाने लगती है – हमारे घर में ऐसी संतान कैसे हो गई, जो ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह कर रही है? – फिर समझाने का प्रयास करती है – बेटा, ऐसा नहीं बोलते, भगवान नाराज़ हो जाते हैं। इतना अभिमान अच्छा नहीं होता, इसका परिणाम बहुत बुरा होता है। इतनी बड़ी सृष्टि बिना किसी नियंत्रक के नहीं चल सकती – पता नहीं माँ, कि चल सकती है या नहीं, लेकिन जिस तरह चल रही है, उसे देखकर मेरे मन में इसके नियंत्रक के प्रति ( यदि वह है ) कोई श्रद्धा नहीं आती, तो मैं क्या करूँ? – माँ फिर नाराज़ हो जाती है – सदियों से इतने लोग बेवकूफ़ ही थे और तू ही अकेला समझदार आया है – सदियों के सब लोग ग़लत नहीं हो सकते क्या माँ और मैं अकेला ही नहीं हूँ, हज़ारों लोगों ने उसके होने पर सवाल खड़े किए हैं... – माँ दुखी हो जाती है और ‘भगवान’ की तरफ से कहती है – मैं इस सिर को एक दिन उसी भगवान के सामने झुका दिखा दूँगी। जो ऐसा बोलते हैं, ‘वो’ उनको अपने सामने झुकने के लिए मजबूर कर देता है – माँ ने जैसे भविष्य देख लिया है और उसकी आँखों में मुझ पर आने वाली असीम आपत्तियों के लिए चिंता ही चिंता है – माँ, यदि वह शक्तिशाली है ही तो वह आसानी से मुझे अपने सामने झुका सकता है, और हो सकता है कि झुका भी ले, लेकिन वह भय होगा, श्रद्धा नहीं। मैं न चाहते हुए भी एक न देने योग्य उदाहरण देता हूँ – ऐसे तो पूरे पाकिस्तान को एक तानाशाह ने अपने सामने झुका लिया है, तब क्या उन झुके हुए सिरों में उसके लिए तनिक भी श्रद्धा है? – माँ मुझे हेय दृष्टि से देखती है और उठकर चली जाती है। मेरे मन में आक्रोश उमड़ता रहता है। माँ, क्या तुम्हीं ने जिज्ञासु होना नहीं सिखाया और क्या वे सब जीवन-पद्धतियाँ फिजिक्स और गणित के सवाल हल करने के लिए और आई.आई.टी. से डिग्री लेने के लिए ही सिखाई गई थी?
मैं आज पूछता हूँ माँ कि उस आज़ादी का अर्थ क्या था? क्या उस आज़ादी का अर्थ आत्मा की आज़ादी नहीं था, सोचने की आज़ादी नहीं था, आस्था की आज़ादी नहीं था? आस्तिकों की आस्था को चोट पहुँचाना अनैतिक माना जाता है और मैं भी मानता हूँ। मैं जानबूझकर कभी ऐसा नहीं करता। लेकिन किसी की अनास्था को चोट पहुँचाना क्या नैतिक है? ईश्वर को न मानने का अर्थ मेरे चरित्र, जीवन-शैली और नैतिकता से क्यों जोड़ा जाता है, क्यों उन पर दबे-छिपे या खुले स्वर में संदेह जताया जाने लगता है?
मेरा स्थान आज माँ की नज़रों में हल्का सा कम तो अवश्य हुआ। क्यों हुआ वो? क्या माँ, परिवार, समाज की ईश्वर में आस्था न रखने वाले लोगों के प्रति कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं बनती? और यदि इसका उत्तर ‘न’ आता है तो मुझे लगता है कि सबके सिर उस तानाशाह के सामने झुके हुए हैं और मुझमें और उसके बीच में से सब उसे ही चुनेंगे, बिना कोई प्रश्न किए, बिना कोई तर्क सुने। हालाँकि मैं कोई ‘एक्सलूसिव’ अधिकार नहीं चाहता। मैं नहीं कहता कि आपको किसी एक को ही चुनना है, लेकिन अक्सर ऐसा ही होता है कि सब हाथ उसे ही चुन लेते हैं। क्यों होता है वो? क्या सवाल पूछना, स्वतंत्र होकर सोचना और भीड़ से अलग होना (वह इस प्रक्रिया में स्वत: हो जाता है, कोई भीड़ से अलग दिखने के लिए ऐसा नहीं करता) इतना बड़ा गुनाह है?
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4 पाठकों का कहना है :
गौरव जी दिवाली कि ढेरों सारी बधाई और शुभ कामना !
भाई गौरव, इतनी ईमानदारी के साथ अपनी सोच रखने के लिये बधाई. आप अकेले नहीं हैं जिनके मन में ऐसी शंका आई है, बहुत हैं. मैंने भी कभी-कभार सोचा है ऐसी बातों पर. आप भौतिकी, गणित, अभियान्त्रिकी इत्यादि के छात्र हैं तो आपसे एक प्रश्न है: इलेक्ट्रान, प्रोटोन आदि कणों के अस्तित्व में विश्वास है आपको? कभी किसी ने इन कणों को नहीं देखा, बस इनके अस्तित्व की संभावना की शंका व्यक्त की है! और ये अंक क्या हैं? इनके अस्तित्व के बारे में भी सोचकर देखिये उतनी ही ईमानदारी के साथ जितनी ईमानदारी के साथ आपने ईश्वर के विषय में सोचा है.
गौरव जी , शायद अनिष्ट, डर के कारण हम ईश्वर को मानते है - डर किस बात का - डर शब्द के मतलब सबके लिये अलग अलग हो सकते है
main to aasthavanon se nafarat karta hun, agar vo apnee saree kabiliyat gina den to bhee sirf ek mitti ka matka bhar hain, jo khud ye janta hai kee usmen panee kitna hai par labalab kanchan panee ke ghamand men paindee ka chhed dekhna bhool jata hai, ab usmen dono hath lage hain mahnat se kuwe se panee uleech kar bharne men par panee hai kee neeche se lagatar nikal raha hai, lekin matke ko koi farak nahin padta use to apne men bhara panee dikh raha hai par wo mahnat jo wo hath kar rahe hain uskee fizul hoti mahanat ka use koi guman nahin.... itrakar baitha rahta hai din se rat ho jatee hai raat se subah haath wala bhookha kolhu ke bail kee tarah mar choor hokar mar jata hai... aakhir matke ko jab tak pata chalega us adne se chhed ka tab tak bahot der ho chukii hoti hai panee uske khaleepan ko bharne wala koi nahin milta...
vo hath jo mahanat karkar panee late or bharte jate the vo tha tarksheel dimag, vo matka tha itihas ke bhangur mulyon or sampannta ka ghamandee khopadi...
ant men marne ke baad ke baad pata chalta hai sahi kya hai tab tak uska tark vitark karne wala sochne samajhne wala dimag gayab bhi mar chuka hota hai.. or vo matka khalee astitv ka kankal bankar nirjeev pada rahta hai... fir use koi aakar uskee mratyuu shaiiya par letakar bhasm kar deta hai or use bhasm karne wale uske us antim sahi gyan ko khud tab tak nahin samajh pate jab tak wo aisee durgatee ke liye waiting list men abhi deeval par latke hain...
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